________________
बात को कहने के लिए जोर नहीं डाला जाएगा। अब राजमहल ने एक बृहत् मन्दिर के निर्माण कार्य को हाथ में लिया है। उसे आचन्द्रार्क स्थायी कीर्तिदायक कार्य के रूप में रूपित होना चाहिए। ऐसा कार्य करना हो तो शिल्पी का मन हर्षपूर्ण होना जरूरी है। उसमें तृप्ति रहनी चाहिए। अतृप्त कलाकार से उत्तम कला का निर्माण नहीं हो सकेगा। क्योंकि जहाँ अतृप्ति हो वहाँ तादात्म्य भावना नहीं होती। मेरा मन्तव्य सही है न?"
II
'आंशिक रूप से सही है। परन्तु कलाकार के दो व्यक्तित्व होते हैं। एक वह जो आठ बिलस्त का मनुष्य रूपधारी भौतिक शरीर दूसरा शरीर के अस्तित्व को भूलकर कला - कल्पना में तन्मय हो अपने को भूल जानेवाला एक अन्य सृष्टि को ही कर सकनेवाला व्यक्तित्व। एक दूसरे से नहीं लगता। यदि एक दूसरे से लग जाय तो कला अपरिपक्व ही होगी।"
" तो आपके कहने का तात्पर्य है कि कलाकार जब कलाकृति निर्माण में लगता है तब अपने भौतिक विचारों को, दुःख-दर्द को भूल जाता है - यही हुआ न
आपका आशय ?"
'हाँ। ऐसा न हो तो मैंने जो कला सीखी है, वह मेरे दर्द की आग में जलकर खाक हो जाएगी।"
"ऐसा है ! किसे दुःख-दर्द नहीं है, शिल्पीजी ? एक न एक दुःख सबको रहता ही है। कुछ ऐसे दर्द हैं जो अनपेक्षित होते हैं। कुछ अचानक आते हैं। कुछ किसी दूसरे के कारण होते हैं। ऐसे दुःख-दर्द को सह लेना चाहिए । कुछ दर्द ऐसे हैं जो अपने आप उत्पन्न हो जाते हैं। उसके लिए बाहर के लोग कारण नहीं होते, हम खुद ही कारण बनते हैं। वह हमारे ही अविवेक के कारण हो सकता हैं। या फिर जल्दबाजी या अज्ञान के कारण हो सकता है। इसलिए दुःख को सजीव बनाये रखकर क्रोधित होने की अपेक्षा उसे पचा लेना ठीक होता है। या फिर उसे जड़ से निकाल फेंकना उत्तम है ।"
"ऐसे विषय में नियम बनाकर उसके अनुसार चलना हो सकेगा ? प्रत्येक के दुःख-दर्द का अलग-अलग कारण होता है। "
+
'एक बात है मेरी राय में दर्द या दुःख किसी भी कारण से हो, वह ऐसा नहीं होता जिसका निवारण नहीं किया जा सके। "
" इस विषय में मेरा मत भिन्न है। इसके लिए सन्निधान मुझे क्षमा करें।" "भिन्न मत होने से ही विचार विनिमय के लिए मौका मिलता है। वह अच्छा ही है। अच्छा, अब इस बात को रहने दें। अब जिसके लिए आपको बुलवाया, उस पर ध्यान दें।" कहकर उन्होंने घण्टी बजायी । रेविमय्या ने आकर प्रणाम किया । "यहाँ दो और आसन लगवाओ और अब निर्मित होनेवाले चन्द्रकेशव
218 :: पट्टमहादेवी शान्तला भाग तीन