________________
मैंने उनसे व्यवहार किया, मुझसे यह क्या हुआ?''
"तो आप और अरसजी के बीच काफी बातचीत हुई होगी न?"
"हुई। अब उसके बारे में क्या सोचना! सुना कि आज्ञा हुई, आया हूँ। मुझसे कुछ होना हो..."
"करेंगे?"
"हो सकता होगा तो अवश्य करूँगा। जो न हो सकेगा उसमें हाथ नहीं लगाऊँगा।"
"मन्दिर के कार्य के लिए जो पत्थर लाये गये हैं, आप उनकी परीक्षा कर रहे थे न?"
"हाँ।" "तो यह सिद्ध हुआ कि आप पत्थर की परीक्षा करना जानते हैं।" "थोड़ा परिचय है। हमारा धराना पीढ़ियों से शिल्पियों का रहा है।" "अपने खुजुर्गों का नाम बता सकेंगे तो सुख होगा।"
"मैं अपना ही परिचय देना नहीं चाहता। पट्टमहादेवीजी मुझ पर इसके लिए क्रोध न करें।'
__"क्यों, आपको किसी से डर है ? इस पोय्सल राज्य में इस तरह के भय का कोई कारण नहीं।"
"मुझे कोई डर नहीं। उसे कहते असह्य की भावना होती है। उसके स्मरण मात्र से मेरा मन आन्दोलित हो जाएगा। इसलिए इस बारे में कृपया कुछ न पूछे। सन्निधान की इच्छा हो तो कोई काम दे दें। अपनी शक्ति-भर करूँगा। नियोजित करनेवालों को तृप्त करने की कोशिश करूँगा। यदि व्यक्तिगत विषयों को जानने की कोशिश होगी तो मुझे यहाँ से खिसक जाना अनिवार्य हो जाएगा। राजमहल के कार्य को स्वीकार करने के बाद ऐसी परिस्थिति आ जाय तो मैं बहुत क्लिष्ट परिस्थिति में फँस जाऊँगा। मुझे परेशानी होगी या मुझे यदि ऐसा लगा तो मैं यहाँ से खिसक जाऊँगा।"
"हम छोड़ देंगे तब न आप खिसक जाएँगे।" "मुझ पर पहरा लगाएँगे क्या?"
"कला को विकसित होना हो तो कलाकार को पूरी आजादो रहनी चाहिए-यह हम जानते हैं। इस राज-परिवार के बारे में आपको जानकारी होना अच्छा है। राज-परिवार दूसरों के व्यक्तिगत विषय में बिना जरूरत के प्रवेश नहीं करेगा। यहाँ की प्रजा को कोई संकट हो तो उसका मूल कारण जानकर उसे दूर कर उन्हें सुखी और सन्तुष्ट करने का ही प्रयत्न करेगा। किसी की शान्ति को भंग करने का प्रयास नहीं करेगा। इसलिए आपकी इच्छा के विरुद्ध किसी भी
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 217