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"आइए. आइए." उदयादित्य ने मुस्कराते हुए स्वागत किया।
शिल्पी ने धीरे से सीढ़ियाँ चढ़कर उदयादित्य के साथ महाद्वार में प्रवेश किया। उदयादित्य उसे उस मुख-मण्डप में ले गये जहाँ पट्टमहादेवी प्रतीक्षा में बैठी थीं। और बोले, "यही वे शिल्पी हैं।"
"खुशी की बात है। बैंठिए।" शान्तलदेवी ने खम्भे के पास रखे एक आसन की ओर इशारा किया।
शिल्पी काठमारा-सा खडा ही रहा। नमस्कार करता तक भूलकर वह आँखें टिमटिमाते हुए खड़ा ही रहा।
"आपसे ही बैठने को कहा है। बैठिए।" उदयादित्य ने शिल्पी से कहा।
उसने उनकी ओर ऐसी प्रश्नार्थक दृष्टि से देखा मानो आप बैठेंगे नहीं क्योंकि वहाँ एक ही आसन जो था।
- उदयादित्य ने कहा, "वह आसन आप ही के लिए है, बैठिए। मुझे बैठना नहीं है. मुझे दूसरा कार्य है।"
शिल्पी धीरे से आसन की ओर गया। उदयादित्य वहाँ से चले गये। आसन पर बैठने के बाद शिल्पी ने उस विशाल-मुखमण्डप के चारों ओर नजर दौड़ायी। दरबान के सिवाय वहाँ खुद शिल्पी और पट्टमहादेवी ही दिखाई पड़े। दूसरा कोई दिखाई नहीं पड़ा। शिल्पी चुपचाप बैठ गया।
शान्तलदेवी सोच रही थीं कि किस ढंग से इससे बात शुरू करें । इस शिल्पी के बारे में निश्चित जानकारी न होने पर भी, उनका यही अनुमान था कि यह वहीं शिल्पी होगा जो आचार्यजी से मिला था। इसलिए इससे कुछ सावधानी के साथ बातचीत करनी होगी, यह वह जानती थीं। अतएव उन्होंने अपनी ही एक रीति को रूपित कर लिया था। पूछा, "शिल्पी जी, हमारे उदयादित्य अरस ने आपकी उचित आवभगत की न?" यों बात आरम्भ की।
"अरस! कौन?" 'वे ही जो आपको यहाँ ले आये।" 'वे..." "वे पोय्सलेश्वर महासन्निधान के भाई हैं।"
शिल्पी ने अपने में ही कहा, "छि; छि:, कैसा काम हो गया!" उसकी यह बात शान्तलदेवी ने भी सुनो।
"क्या हो गया, अब?" "उनका परिचय मिला होता...।" "उन्हें जानते होते तो क्या लाभ होता?" ''मैं एक साधारण प्रजा मात्र हूँ। वे राजा के भाई । एक सामान्य प्रजा समझकर
216 :: पट्टमहादेवी शान्तन' : भाग तीन