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"शायद आप सोचती हैं, वह पहले की तरह भागा नहीं?"
"भाग जाने का कोई कारण होना चाहिए। अथवा कोई साक्ष्य ! दोनों के अभाव में मैं कुछ नहीं कहना चाहती।"
"क्या आपका विश्वास है कि वह लौट आएगा?" ।' इसे सोचने के लिए जल्दी क्यों? उदय, कल प्रातः काल तुम्हें उसे देखना है
न?"
"ऐसा कुछ नहीं! मैंने पूछा था कि कल आ जाऊँ ? उसने कहा 'हाँ। " "तो तुम कल मध्याह्न के बाद वहाँ आओ। "आप अब भी विश्वास करती हैं?"
"यह विश्वास-अविश्वास का प्रश्न नहीं। हमारा कर्तव्य है। वह सीधा हमारे पास पहुँचे-ऐसी व्यवस्था की है?"
"नहीं।"
"तो वह आएगा कैसे?" कभी आने की सोचकर आ भी गया तो उसे अन्दर न आने दिया गया तो क्या हालत होगी? यही सोचकर कहीं वह न आए, इसकी सम्भावना है। कल अगर वह न मिले, फिर आगे विचार करेंगे।"
"ठीक है।" "स्थपतिजी कैसे हैं ?" "बहुत उत्साही हैं।" "उत्साहित होने की ही तो उन है उनकी। महत्त्वाकांक्षी हैं।" "परन्तु महत्त्वाकांक्षा कहीं अहंकार में परिणत न हो जाय-मुझे डर है।" "अहंकार में परिणत हो जाएगी सो अवनति का मार्ग खुलेगा।"
"परन्तु वह अवसर सो उपस्थित है। क्या करें? बड़े-बड़े शिल्पियों के प्रारूप अस्वीकृत हुए; मेरा स्वीकृत हो गया। उनसे मैं श्रेष्ठ हूँ, इसीलिए मेरे रेखाचित्र को मान्यता मिली-ज्ञात हुआ कि परसों यह बात कल्कणिनाडु के माचोज से भी उन्होंने कही।"
"कहने दो। छोटी उम्र है। उन्होंने सोचा भी न होगा कि इतने बृहत् कार्य के स्थपति का कार्यभार मिलेगा। ऐसी स्थिति में ऐसा ही होता है। मुझे भी एक. दो बार इसी तरह का अहंकार हुआ था, उदय!"
"यों कहकर मुझे छेड़ने की इच्छा है?"
"तुझको छेड़ने से मुझे क्या लाभ? छेनी पर हथौड़ा लगे तो विग्रह ही होता है, उदय ! सभी मनुष्यों को कभी-न-कभी इन स्थितियों से पार करना होता है। मानव को परिपूर्ण बनना हो तो इस तरह से पार करने की क्रिया का होना अनिवार्य है।"
"आपको अहंकार क्यों होना चाहिए? मेरी तो यही मान्यता है कि अभी
224 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन