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साथ पुनीसमय्या, माचण दण्डनायक रहें। बोप्पदेव को राजधानी की रक्षा के लिए यहीं रखेंगे। एचिराज मैरे साथ जाने के लिए उत्साहित हैं।
शान्तलदेवी ने सूचित किया, "मंचिदण्डनाथ भी अपने अश्वदल के साथ सहायतार्थ जाएँ तो अच्छा।"
बिट्टिदेव ने कहा, "वे जहाँ हैं वहीं रहें, यही अच्छा है। इसी समय चालुक्य चक्रवर्ती ने कोई अहित साधा लो हमारी उत्तरी सीमा में संरक्षण की व्यवस्था न रह सकेगी। अकेले चोलों की ही बात होती तो वह किया जा सकता था। सिंगिमय्याजी यादवपुरी के रक्षणकार्य में रहेंगे ही। ऐसी आवश्यकला होगी तो उन्हें और रायण दण्डनाथ को तलकाडु प्रान्त की ओर बुला लिया जा सकता है। डाकरसजी यहीं वेलापुरी में ही रहें।"
"तो सन्निधान ने युद्ध में जाने का निर्णय किया है ?" शान्तलदेवी ने पूछा।
"हाँ, हमें स्वयं युद्ध में उपस्थित रहना होगा। उसका एक कारण है। कन्नड़ जनता को कष्ट देने के विषय में पत्र लिख-भेजकर योग्य रीति से व्यवहार करने के लिए उनसे कहा गया था और यह भी बताया गया था कि यदि सम्भावित व्यवहार के लिए तैयार न हों तो तलवार के सहारे ही इसका निर्णय करना पड़ेगा। 'यदि समर्थ हों तो लड़कर दिखाएँ। हम पोय्सलों के गुलाम नहीं।'-- यही उत्तर उनकी ओर से मिला है। पोयसलों का गौरव सबसे बड़ा है।" बिट्टिदेव ने बताया।
"यह ठीक बात है। मेरी एक विनती है। सन्निधान युद्ध में जाते हों तो मैं भी साथ रहूँगी।" शान्तलदेवी ने कहा।
"अब कैसे सम्भव है? मन्दिर के कार्य को सुसम्पन्न करना हो तो पट्टमहादेवी का यहाँ रहना आवश्यक है।" बिट्टिदेव ने कहा।
"ऐसा हो तो मंचि दण्डनाथ और रानी बम्मलदेवीजी को साथ ले जाइए।" शान्तलदेवी ने कहा।
"प्रकृत स्थिति में मंचिअरस का वहीं रहना अच्छा है। सन्निधान ने जो कहा वह स्वीकार करना ही है।" गंगराज ने कहा।
"सो तो आपके निर्णय से सम्बन्धित विषय है। परन्तु सन्निधान के साथ मुझे रहना चाहिए या बम्मलदेवीजी को रहना चाहिए। यह कैसे होगा, सोच देखिए। मेरे न रहने पर भी उदयादित्य यहाँ रहकर इस मन्दिर का कार्य कर सकेंगे। कोई ऐसी बात नहीं जिसे वे नहीं जानते हों।''
"अनुमति दें तो मैं एक सुचना ? उससे प्रकृत सन्दर्भ में उचित परिहार भी हो सकेगा।"-कहकर उदयादित्य ने बिट्टिदेव की ओर देखा।
"कहो।" बिट्टिदेव ने कहा।
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 229