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"तुम्हारा मार्ग बड़ा विचित्र है! विरसता में सरसता का उद्भन्न करना!"
"विरसता कहाँ है, स्वामी विरसता हमारी कल्पना में है। शैत्र शिव कहते हैं। घेदान्त ब्रह्म की कल्पना करते हैं, बौद्ध बुद्ध की कल्पना करते हैं। हम जैन अर्हन् कहते हैं। परन्तु यह पृथक-पृथक कल्पना हपारी है। विभु इस तरह की भिन्न-भिन्न कपमाओं के लिए कभी कारण नहीं। हमारो कल्पना में बिरसता होते देख वह हम पर दया ही बरसाता है । अस्तु । सन्निधान ने आचार्यजी को आश्रय दिया, इसपर चोलों को क्यों क्रोधित होना चाहिए। वे जिस शिव की आराधना करते हैं, उस शिव ने उनसे ऐसा करने को कहा क्या?"
"तो तुमने पहले ही व्यक्त किया था।"
"यह तो सहज ही अनुमान योग्य है। अब सन्निधान विश्रान्ति ले सकते हैं।" कहकर बात को समाप्त किया।
"अतृप्त ही हम युद्ध के लिए प्रस्थान करें?"
"ऐसा नहीं । विशेष तृप्ति को महत्त्वाकांक्षा लेकर सन्निधान को यात्रा करनी चाहिए।"-कहकर शान्तलदेवी चादर बढ़ाकर गालों पर थपकी देती हुई उन्हें सुलाकर अपने शयनकक्ष की ओर चली गयीं। थोड़ी देर आँख मूंद ध्यानस्थ रह हाथ जोड़, प्रणाम कर फिर लेट गयीं।
दूसरे दिन स्वयं सन्निधान को ही विजय यात्रा पर निकलना था, अत: सम्प्रदाय के अनुसार ब्राह्ममुहूर्त में ही जागकर राजदम्पती ने तैल -स्नान आदि की समाप्ति के पश्चात् पूजा-अर्चना आदि कर नियमानुसार सभी विधियों को पूरा किया।
पट्टमहादेवी के आदेश के अनुसार रेविमय्या यायावर शिल्पी के उस ठिकाने पर जा पहुंचा, जहाँ ठहरने की सूचना उसने दी थी। गमन से पूर्व ही शान्तलदेवी ने उसे बताया "जब उदयादित्यरस गये थे तब वह वहाँ नहीं था; इसलिए जब तुम वहाँ पहुँचौ तब यह भी सम्भव है कि वह बहाँ न मिले। मिले तो उसे सन्निधान का भी दर्शन मिलेगा। जब तुम वहाँ जाओ और वह वहाँ न मिले तो वहीं कुछ देर प्रतीक्षा करना, फिर लौटना।"
यगची नदी के तौर पर के उस मण्डप के पास रेविमय्या पहुँचा ही था कि उसे वह शिल्पी नदी में नहा धोकर लौटता दिखाई दिया। रेविमय्या घोड़े पर सवार होकर आया था, उसे देखते ही शिल्पी ने समझा कि उदयादित्यरसजी के आने की यह पूर्व सूचना है। उसने रेबिमय्या को पहले राजमहल में देखा था। परन्तु उसके नाम-धाम और पद आदि से वह अपरिचित था। उसने पूछा. "अरसबी कब आएँगे?"
"अरसजी राजधानी में नहीं हैं। राजकार्यों के निमित्त गये हैं। आपको
232 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन