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पर गौण।"
"अब हमहादेशीजी ने जो कहा है पाका मार्य है। इतने में वे राजमहल के द्वार तक पहुँच गये थे। "मैं परसों आऊँ?" उदयादित्य ने पूछा। "हाँ, वैसा ही करें।" कहकर शिल्पी चला गया।
स्थपति हरीश, या अन्य किसी शिल्पी को इस सम्बन्ध में कुछ भी मालूम नहीं था। किसी एक गरीब अधेड़ व्यक्ति को राजमहल में ले जाने और थोड़ी देर के बाद, वहाँ से भेज देने की बात सुनासुनी प्रकट हो गयी थी। वह कौन था? उसे राजमहल में क्यों ले गये? प्रबल जिज्ञासाएँ थीं। परन्तु दूसरे ही दिन से उस व्यक्ति के न दिखने के कारण सारी तीव्रता तिरोहित हो गयी।
यह बात भी शान्तलदेवी के ध्यान में आयी। उदयादित्य से प्रतिदिन कार्य में प्रगति का पूरा विवरण शान्तलदेवी लिया करती थीं। इस यात्री शिल्पी को जिस दिन देखा था, उसके दूसरे दिन ही बासचीत करते हुए उसके निमित्त उदयादित्य ने निवेदन किया, "उस शिल्पी ने कितनी प्रगति की है, इसे क्यों न देख आवें?"
"देखकर आ तो सकते हैं। मगर वह व्यक्ति उसी को कुछ-का-कुछ समझ ले तो?"
"समझने दीजिए; हम उनसे बेगार तो नहीं करा रहे हैं न?"
"सच है। हम उन्हें धन दे सकते हैं। परन्तु धन ही उनका लक्ष्य तो है नहीं, हमें इसे भी भूलना नहीं चाहिए।"
"सो तो ठीक है। फिर भी ऐसा लगता है कि हम उनके विषय में विशेष श्रद्धा दिखा रहे हैं। क्या यह ठीक है? प्रसिद्ध शिल्पी, विरुदावलीभूषित शिल्पी भी बड़े विनीत होकर बरत रहे हैं। इसका व्यवहार विचित्र होने पर भी इसकी ओर विशेष ध्यान क्यों?"
"आचार्यजी ने उनके बारे में जो कहा था, उसे क्यों भूलते हैं। उनके अन्तरंग को कुछ सूझा और लगा कि इस शिल्पी से बहुत ही उत्कृष्ट कार्य करवा सकते हैं। उनकी वह आन्तरिक सूझ अवश्य ही मूल्यवान रही होगी-यही मेरा भाव
"ऐसा हैं तो पट्टमहादेवी ने मतान्तर के विषय में हठ क्यों किया था?" "उसका इसके साथ क्या सम्बन्ध है. उदय? मत मेरा अपना है। वह मेरी
222 :: पष्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन