________________
ने अपने किसी भी गुरु को स्थपति का पद नहीं दिया। निर्णय करनेवाली तो वही थीं, चाहती तो दासोज या गंगाचारी को स्थपति बना सकती थीं। गुरु होने के नाते उनपर गर्व होने पर भी, उसके वश में न आकर अपनी कल्पना के निकटम वित्र प्रस्तुत करनेवाला शिल्पी अपरिचित होने पर भो, उसी को स्थपति का पद दिया। इसके बाद दासोज, गंगाचारी आदि और बेलगोल, बलिपुर के शिल्पियों को बुलवाकर उन्हें बात समझाकर कहा कि इस निर्णय पर किसी को परेशान नहीं होना चाहिए और यह भी बताया कि पोय्सलों का अपना ही एक वास्तुशिल्प रूपित होना चाहिए। उसमें वास्तुवैविध्य को रूपित करने के लिए काफी गुंजाइश है। ओडेयगिरि के शिल्पी ने मेरी कल्पना को अच्छी तरह समझ लिया है। यह मन्दिर श्री वैष्णवमतप्रवर्तक श्रीश्री रामानुजाचार्य के आदेश के अनुसार निर्मित होनेवाला है। इसलिए उनकी आकांक्षा के अनुसार इस मन्दिर का प्रारूप कल्पित है। सभी शिल्पियों को अपना कौशल दिखाने के लिए इसमें काफी अवकाश भी है। सभी को उनसे सहयोग करना चाहिए। उनका बनाया हुआ रेखाचित्र स्वीकृत होने के कारण उन्हें स्थपति बनाया है। राजमहल की दृष्टि में सभी शिल्पी बराबर हैं। कोई भेदभाव नहीं है। मेरी एक विशेष विनती है। इस मन्दिर के निर्माण में आप लोग जो कला-कौशल दिखाएँगे उसे सदियों तक स्थायी रहना होगा। आप लोगों का नाम स्थायी होगा, आगे की पीढ़ियों के लिए उसे मार्गदर्शक भी बनकर रहना होगा और उन्हें तृप्ति मिलनी होगी। इस ढंग से इसका निर्माण हो; यही कहना है।" यों दिल खोलकर सारी बातें कह दी और उन सभी शिल्पियों का सहयोग प्राप्त किया, शान्तलदेवी ने। शीघ्र ही आवश्यक शिला मैंगवाने की व्यवस्था की गयी। हजारों लोग काम में लग गये। मन्दिर के शिलान्यास का कार्य स्वयं महाराज के हाथों सम्पन्न हुआ।
ढेर-के-ढेर नरम पत्थर कोनेहल्लि से लाये जाकर वेलापुरी में हेर लगाया गया। कोहल्लि का नरम पत्थर वहाँ का प्रसिद्ध पत्थर है, सोने की तरह। स्थपति ओडेयगिरि के हरीश ने शिल्पियों की सामर्थ्य के अनुसार कार्य का बँटवारा किया। धूप से बचाने के लिए शिल्पियों के कार्य-स्थानों पर जहाँ-तहाँ छाया के लिए छप्पर निर्मित हुए। मन्दिर के कारीगरों के लिए ही एक अलग पाकशाला, भोजनागार भी शुरू किया गया।
काम सूर्योदय से शुरू होकर सूर्यास्त तक लगातार चलता था। दोपहर के भोजन के लिए आधा प्रहर का समय दिया जा रहा था।
हजारों कार्मिक समय को बेकार न बिताकर कार्यमनस्क होकर काम करते थे इन्हें देखना ही एक आनन्द का विषय था। शिल्पियों की महीन कारीगरी को बहुत बारीकी से देखना चाहिए: ऐसी कुशल कारीगरी का कार्य सम्पन्न हो रहा था।
212 :: पट्टमहादेवी शारला : शग तीन