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हरीश के रेखाचित्र के अनुसार नींव खोदी गयी। नींव बनाने का कार्य आरम्भ हुआ। शान्तलदेवी और उदयादित्य इस निर्माण कार्य की निगरानी करते
रहे
एक दिन भोजन के वक्त जब कार्यकर्ता सब भोजन करने गये थे, तब शान्तलदेवी और उदयादित्य शिल्पियों के इस सायेदार कार्य स्थान पर आये। उस दिन वे प्रातः काल से वहाँ नहीं आये थे। उनके आने से पहले कोई एक व्यक्ति वहाँ के पत्थर के ढेर के एक-एक पत्थर को छू-छूकर देख रहा था । विग्रहों का नाप-तोल कर रहा था। उस व्यक्ति की इस तरह की लगन को देखकर शान्तलदेवी को आचार्यजी से सूचित शिल्पी की तुरन्त याद आयी। उन्होंने उदयादित्य को तुरन्त स्पष्ट सूचना दी कि उस व्यक्ति को राजमहल में बुला लाएँ और बताया, "मैं राजमहल के मुखमण्डल में बैठी रहूँगी।" वे चली गयीं
उदयादित्य उसके पास गये और पूछा, I "मैंने कब कहा कि मैं शिल्पी हूँ?" "कहने की जरूरत नहीं। फिर भी हमें मालूम हो कि आप किस देश के हैं ?" 'अब उससे कोई प्रयोजन नहीं होगा। हम कहीं के हों, इससे क्या मतलब ? हमारा देश कोई भी हो, उससे क्या होता है ? उसे जानकर आपको क्या फायदा होगा ?"
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आप किस देश के शिल्पी हैं ?"
"मुझे कुछ होना नहीं हैं। यहाँ एक बहुत बड़ा आयोजन है। देश-देशान्तर से शिल्पियों को बुलवाने के लिए राजमहल ने दूतों को भेजा था। उसे सुनकर यदि आप आये हों तो आपके लिए कार्य देना हमारा धर्म है। इसलिए आप अपना विवरण दें तो मैं पट्टमहादेवी के समक्ष आपको प्रस्तुत करूँगा। फिर वे स्थपत्ति से परिचय करवाएँगी। इसलिए... '
"
"मैं शिल्प जानता हूँ । काम दें तो करूँगा। बाकी बातें बताने की मेरी इच्छा नहीं है। बताने पर जोर देंगे तो मुझे आपका काम ही नहीं चाहिए। अलावा इसके मैं काम की खोज में आया ही नहीं।"
" इच्छा हो तो बताएँ; नहीं तो कोई विवशता नहीं। बताया न कि आप शिल्पी हैं; हमारे लिए इतना ही काफी है। आपका भोजन हुआ है ?"
"हाँ, हुआ।"
" पूछ सकता हूँ कि कहाँ ?"
"यगची नदी के तीर पर। वहाँ एक खरात ठहरी थी, नदी में नहाकर भोजन करने के लिए। मैं भी उन लोगों में शामिल हो गया। "
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'ऐसा है, तो आइए । "
"कहाँ ?"
पट्टमहादेवी शातला भाग तीन : 213