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पाँच-सात फुट खुदवाकर भूशुद्धि की परीक्षा करवाने की सूचना दी। वह कार्य
आरम्भ हुआ। अब शिल्पियों की प्रतीक्षा को छोड़ और कुछ करने के लिए शेष न रहा।
श्रेष्ठ शिल्पी को विरुदावली, भरपूर पुरस्कार--यह सब मिलेगा. इस घोषणा को सुनने के पश्चात् अनेक जगहों से शिल्पी जन आ-आकर वेलापुरी में जमा होने लगे। ओडेयगिरि, बलिपुर, बाड, बेलगोल, लोक्किगुण्डि, कल्कणिनाडु आदि जगहों से अनेक शिल्पी आये। इनमें से कई पहले से विरुदभूषित थे। उनमें बेलगोल और बलिपुर के शिल्पी गंगाचारी, कामघाचारी, चिक्कहम्प, मल्लियाणा, पदरि मल्लोज, दासोज, चावुण आदि पट्टमहादेवी से परिचित थे। उनकी विरुदावली भी वे जानती थीं। कलियुग-विश्वकर्म विरुदांकित लोक्किगुण्डि के मासण, शिल्पी जगदल काटोज, उनका बेटा सरस्वती चरणकमल-भ्रमर नामोज, शिल्पसिंह कुमारमाचारि, कल्कणि पाचोज, ओडेयगिरि हरीश आदि शिल्पियों को इसके पूर्व पट्टमहादेवी नहीं जानती थीं।
पन्द्रह-बीस प्रसिद्ध शिल्पी जनों के आने के बाद एक दिन इन शिल्पियों की सभा आयोजित हुई। अपने मन की कल्पना के भव्य चित्र को विस्तार के साथ समझाकर उसके अनुसार मन्दिर के रेखाचित्र तैयार करने के लिए सभी शिल्पियों को आदेश दिया गया। अब राजमहल ने जिस स्थान को चुना है वह उपयुक्त है या नहीं, इसका निरीक्षण करने के लिए भी कहा गया। यह भी बताया गया कि उस स्थान के अनुरूप भव्य मन्दिर निर्माण हो। शिल्पियों की इच्छा के अनुसार प्रारूप तैयार करने के लिए एक सप्ताह का समय भी दिया गया।
एक सप्ताह के बाद, सभी शिल्पियों ने मन्दिर के रेखाचित्र अपनी-अपनी कल्पना के अनुसार बनाकर राजमहल के सुपुर्द कर दिये। वे बहुत हद तक चालुक्य शिल्प के नमूने-से लग रहे थे। या फिर चोलशिल्प-से दिखते थे। इन सभी रेखाचित्रों में ओडेयगिरि के हरीश शिल्पी का चित्र एक तरह से स्वतन्त्रसा लगता था. इस चित्र में अनुकरण बहुत कम था। शान्तलदेवी को लगा कि इस चित्र में एक नूतनता है, आन्तरिक सुन्दरता के साथ बाहरी सौन्दर्य के लिए उन्होंने विशेष स्थान दिया था। इस विषय में उदयादित्य भी शान्तलदेवी की राय से सहमत थे। उसी चित्र के अनुसार मन्दिर का निर्माण कराने के उद्देश्य से उस चित्र निर्मापक शिल्पी को ही स्थपति बनाने का निश्चय किया गया। शान्तलदेवी
पदमहादेवी शान्तला : भार तीन :: 211