________________
मत-धर्मों पर विश्वास रखता आया है। ऐसी स्थिति में हमारे महाराज श्री वैष्णवगुरु के अनुयायी बने, यह जानकर प्रत्येक के मन में तरह-तरह की भावनाएँ उत्पन्न हो सकती हैं। वास्तव में क्या हुआ सो बताने पर एक तरह का समाधान हमने दिया--यह माना जा सकता है। यही समझकर सत्य को आप लोगों के सामने प्रस्तुत करूँगी। इसके पहले मैं एक भरोसा दूँगी; यह केवल वैयक्तिक और आत्म-तोष की बात है। इसके लिए कोई बाह्य प्रेरणा या दबाव नहीं रहा। किसी पर दबाव डालने का विचार नहीं, यह राजमहल जानता है। राजकुमारी की बीमारी कैसी भयंकर थी, यह तो सब जानते हैं। उस समय मैं अपने मन को बहुत कठिनाई से वश में रख सकी थी। सन्निधान से यह कार्य सम्भव नहीं हो सका। ये वनवत् होने पर भी करुणा-भरा हृदय हैं। राजकुमारी के लिए वे बहुत परेशान हुए। सभी देवी-देवताओं की मनौती मानी; फिर भी फल नहीं हुआ। तब अन्त में हारकर सन्निधान ने भरे दिल से कह दिया-"जो भगवान् बच्ची को जीवन देंगे हम उनके भक्त बनेंगे। उसी समय आचार्यजी ने आकर अपने अमृतहस्त से उनके गुरु के द्वारा दत्त सर्वरोगहर चूर्ण अपने आराध्य देव महाविष्णु का ध्यान करके दिया। बीमारी निश्शेष हो गयो, चमत्कार की तरह। वचनपालक विरुदावली से विभूषित सन्निधात को अपने वचन का पालन करना पड़ा। वे आचार्य के शिष्य बने। वे बने इसलिए हम इस विषय में उनका अनुसरण करेंयह कोई आवश्यक नहीं है। वे भी इसकी अपेक्षा नहीं करते। राजा ने ऐसा किया, उसमें कोई महत्त्व है.--ऐसा मानकर कम जानकारी रखनेवाले, अज्ञान के कारण वैसा न करें; और समझें कि हमने जिस पर विश्वास रखा है वह भी उतना ही श्रेष्ठ है-इसीलिए उनकी धर्मपत्नी और पट्टमहादेवी होकर उनका अनुकरण करना मेरा धर्म होने पर भी मैंने ऐसा नहीं किया। जन्म से जैसे मैं जैन हूँ आज भी वही और अन्त तक वही बनकर रहूँगी। फिर भी सन्निधान मुझसे यथावत् पहले जैसा ही प्रेम रखते हैं। वैसा ही आदर करते हैं। हमें उनकी परिस्थिति को समझकर सहानुभूति के साथ उनसे व्यवहार करना चाहिए। हमारे इस पोय्सल राष्ट्र में आचन्द्रार्क यह स्थायी होना चाहिए कि हम सर्वमतसहिष्णु हैं। कलामय बस्तियाँ, चैत्य, शिवालय, केशवालय सभी का एक-सा निर्माण होना चाहिए। सबके लिए राजमहल से एक-सी सहायता मिलनी चाहिए। ऐसी भव्यता के लिए सन्निधान की यह सूचना शुभ आरम्भ है, नान्दी है। इसलिए, कहाँ केशवसौम्यनायकी का मन्दिर बनना चाहिए- इसका निर्णय करना है।" शान्तलदेवी ने स्पष्ट किया।
परिस्थिति कुछ छनी हुई-सी दिखी। "श्रीश्री आचार्यजी ने यगची नदी के तौर पर प्रस्ताव किया है, इसलिए
पट्टमहादेवी : भाग तीन :: 209