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"पट्टमहादेवीजी स्वीकार कर लें तो एक भव्य मन्दिर का निर्माण हो। सो भी बहुत थोड़े समय में इधर हमारी आनतशाला की मन में कल्पना होने के चार पखवारे के अन्दर वह बनकर तैयार हो गयी। जब आसन्दी की तरफ गये तब इसकी कल्पना ही नहीं रही। वहाँ से तीन महीनों में लौटे। इतने में यह तैयार हो गयी थी। हम न रहेंगे तब भी वे इन कामों में बहुत तेज हैं।" बिट्टिदेव ने प्रकारान्तर से आचार्यजी के प्रस्ताव को स्वीकृति दे दी।
'सन्निधान रहेंगे तो कौन-सी रुकावट होती है ?" शान्तलदेवी ने बात के साथ अपनी बात जोड़ दी ।
"सच कहूँ ! श्री श्री के सम्मुख कुछ कहूँ तो क्रोध न करें।" बिट्टिदेव ने कहा । "कुछ न कहने की स्वतन्त्रता सन्निधान को है, इसके अतिरिक्त यदि कहना हो तो सत्य को छोड़ कुछ और कहने की स्वतन्त्रता नहीं। ऐसी हालत में 'सच कहूँ' क्यों कहना चाहिए। बेधड़क कहें !" शान्तलदेवी ने कहा। उनका स्वर कुछ तेज हो गया था।
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"हम रहेंगे तो पट्टमहादेवीजी को हमारी चिन्ता के सिवा दूसरी कोई चिन्ता नहीं रहती। हम गलत भी करेंगे तो उसे ठीक कर हम पर प्रेम ही बरसाएँगी । उतना समय वे मन्दिर के काम पर लगाएँगी तो कोई नया रूप, नयी शोभा उसमें आएगी। इसके अलावा वे शिल्पशास्त्र में निष्णात हैं, युक्त रीति से उसका अध्ययन उन्होंने किया है। वे सुन्दर चित्र को भी रूपित करके अपनी कल्पना को रूपित कर मार्गदर्शन भी देंगी। उनके अमूल्य समय को नष्ट करने की हमें तनिक भी इच्छा नहीं । इसीलिए हमने कहा कि हम न रहेंगे तो वे इस कार्य में पारे की तरह तेज हैं। यह सच है ।" बिट्टिदेव ने स्पष्ट किया।
"नये आकर्षण की ओर पेंग देने का यह एक बहाना है।" शान्तलदेवी ने
कहाँ ।
"हमारी इस धुन ने जड़ जमा ली है। उसके सामने नया आकर्षक नहीं बन सकेगा। अब इस बात को विस्तृत नहीं करना हैं। वह केवल हमारी बात है। आचार्यजी की इच्छा के अनुसार बेलापुरी में चेन्नकेशव सौम्यनायकी के मन्दिर का निर्माण राजमहल की ओर से करेंगे। पट्टमहादेवीजी उस निर्माण की पूरी जिम्मेदारी लेंगी। हमें अब यात्रा के लिए अनुमति प्रदान करें।" बिट्टिदेव ने
कहा।
'अच्छा, भगवान् आपका सब तरह से भला करें।" कहकर आचार्यजी उठ खड़े हुए। राजदम्पती ने उनके चरण छुए। आचार्य ने पीठ सहलाकर उनके सिर पर हाथ रख आशीष दिया।
इसके बाद गुरु और शिष्य दोनों अलग हुए। यादवपुरी से रवाना होने के
मह। देवी भाग लोन : 207
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