________________
पहले मन्दिर के रेखाचित्र को लाकर सुरिगेय नागिदेवण्णा ने राजदम्पती को दिखाया। शिल्पी को बुलवाकर शान्तलदेवी ने कुछ सूचनाएँ दीं बिट्टिदेव ने भी नागदेवण्णा को एक सूचना दी। "लक्ष्मीदेवी के मन्दिर के मुख मण्डप को हमारी तरफ से आप ही स्वयं रहकर बनवावें।" और सचेत कर दिया कि 'उसमें कहीं इस बात का उल्लेख न हो कि इसे हमने बनवाया । "
H
"सन्निधान की सूचना के अनुसार मैंने बनाया, इतना उल्लेख करने के लिए अनुमति दें, पर्याप्त है।" नागिदेवण्णा ने सूचित किया। स्वीकृति मिल गयी।
निश्चित मुहूर्त में राज परिवार वेलापुरी की ओर रवाना हुआ। शान्तलदेवी ने पूछा नहीं कि किस मार्ग से होकर यात्रा होगी या बेलगोल से होकर क्यों न जाया जाय। जहाँ मुकाम करें वहाँ उतरें और शेष आगे को यात्रा करते रहें - यही काम किया। बेलापुरी पहुँचा, राजपरिवार। दो दिन में छोटी रानियाँ भी आसन्दी जा पहुँचीं ।
जगह नयी न होने पर भी शान्तलदेवी के लिए कुछ नया-नया-सा लगा । वहाँ हिलमिलकर रहने के लिए उन्हें कुछ समय लगा। इस बीच एक बार बिट्टिदेव दोरसमुद्र भी हो आये।
थोड़े ही दिनों में प्रमुखों की एक सभा हुई। उस सभा में सिट्टिदेव ने आचार्यश्री को जो वचन दिया था उसके बारे में समझाया। आचार्यजी के शिष्य बनने की बात भी प्रमुखों में से कुछ लोगों को मालूम थी। इस सम्बन्ध में सूचना भी दी जा चुकी थी कि इस बात की चर्चा कहीं न हो। इसलिए खातावरण कुछ गम्भीर-सा था । बिट्टिदेव को लगने लगा था कि अब पहले का सा मेल-जोल शायद नहीं। इससे उन्हें कुछ अटपटा-सा भी लगा शान्तलदेवी ने उनकी इस स्थिति को भाँप लिया। इसलिए . उन्होंने सोचा कि इस सभा का संचालन कार्य वह स्वयं अपने हाथ लें। उन्होंने परिस्थिति को स्पष्ट करते हुए समझाया- 'इस वक्त राजमहल, सचिव, दण्डनायकसभी लोगों को एक विषय स्पष्ट रूप से बता देना युक्त और आवश्यक भी है। क्योंकि आप लोगों के मन में कौन-कौन से विचार उत्पन्न हुए होंगे उनका उत्पन्न होना असम्भव भी नहीं। सह्याचल के सानु प्रदेश में यह सलवंश उत्पन्न हुआ है। यदुवंश के लांछन को अपनाना यहाँ की वैदिक परम्परा का साक्षी है। फिर भी सलवंश वासन्तिका देवी का वरप्रसाद है। जैनमुनि सुदत्ताचार्यजी के आशीर्वाद से स्थापित होकर प्रवृद्ध हुआ है। एक शताब्दी तक सिंहासन पर बैठनेवाले सभी महाराज जिनधर्मी ही रहे। फिर भी वही लोग सर्वश्रेष्ठ हैं-- अन्य मत कम हैं --ऐसी भावना नहीं रखते थे। अन्य मतों की निन्दा नहीं की। इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि सभी मत-धर्मों के लिए समान अवकाश देना राष्ट्र-धर्म हैं, इसलिए सभी मतावलम्बियों को समान स्थान मान देकर सभी
208 :: पट्टमहादेवी शान्तला भाग तीन
E