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सोचना गलत था। इसके लिए मैं क्षमा माँगती हूँ।" राजलदेवी ने कहा।
"यह बात अन्न खत्य हुई न? अब इसे यहीं भूल जाएं। आपकी बहन विजयी होकर लौट रही हैं। उनका भव्य स्वागत होना चाहिए।"
"सन्निभान?" "बे वेलापुरी पधारेंगे।" "यहाँ नहीं आएंगे?" "आएँगे, बेलापुरी से यहाँ आएँगे। हो सकता है दोरसमुद्र भी जाएँ।" "सो क्यों?"
"सन्निधान के आने पर मालूम होगा। या बम्मलदेवीजी के आने पर उनसे भी शायद आना जा सकता है।"
"ठीक है।"-मुँह से तो यही निकला पर उसके अन्तरंग में कुछ अन्य विचार उठ खड़े हुए : सन्निधान वेलापुरी क्यों गये? यह बात बम्मलदेवी से शायद मालूम हो जाएगी-पट्टमहादेवी के मुँह से यह बात...? इसके माने ? बम्मलदेवी का सन्निधान से इतना सान्निध्य हो गया क्या? यदि यह बात है तो हमारी अभिलाषा सफल है। इधर पट्टमहादेवीजी को कोई विरोध नहीं। जैसा उन्होंने कहा कि किसी का कोई अहित न हो. सामरस्य बढ़े-हम वैसे ही बरतेंगी। हे भगवन् ! हमारी अभिलाषा पूर्ण करो। इसी धुन में उसका चेहरा खुशी से खिल उठा। स्वागत-समारोह में उसका उत्साह विशेष रूप से दिखाई दे रहा था।
नियोजित समय पर सन्निधात की सवारी भी यादवपुरी आ पहुँची।
आते हुए रास्ते में बिट्टिदेव ने बम्मलदेवी और राजलदेवी के समग्र वृत्तान्त हेगड़े, गंगराज, माचण दण्डनाथ, डाकरस दण्डनाथ को विस्तार के साथ बताया।
और कहा, "इस सम्बन्ध में एकमत निर्णय होना चाहिए। हमारा विरोध न होने पर भी कोई ऐसा न समझे कि इसमें हमारी विशेष आसक्ति है। यह तो काल और परिस्थिति का तकाजा है। इस सम्बन्ध में किस-किस के मन में क्या-क्या है, यह सब हमें जैसा लगा था, हमने बता दिया। वहाँ बाकी सब लोग उपस्थित रहेंगे हो। सब लोगों द्वारा एक साथ मिलकर इस बात का निर्णय,जो भी हो, कर ही लिया जाना चाहिए।" इस बात को प्रस्तुत करने में किसी भी तरह का संकोच या उत्साह उनमें नहीं था।
यादवपुरी पहुँचते ही याचिकम्चे ने शान्तलदेवी के समक्ष यह बात छेड़ी। शान्तलदेवी ने कहा, "माँ, इस विषय में महामातृश्री से मैंने बातचीत कर ली थी। फिर आपको इसपर और अधिक सोचने की आवश्यकता ही क्या है?"
___ "मालिक की राय है कि इस विवाह के सम्पन्न होने का अर्थ चालुक्यों को छेड़ना है। सारा जीवन क्या युद्धक्षेत्र में ही गुजरेगा? उनके साथ तलवार तानकर तुम
पमहादेवी शन्तला : भाग तीन :: 97