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अब अच्वान को लगा कि एम्बार अभी तक जगा भी नहीं होगा। कथा सुनाने की धुन में बहुत देर तक सोया न हो, यह भी सम्भव है। एम्बार के स्वभाव से अच्वान परिचित न हो सो बात नहीं। इसलिए उसे जगाने के लिए
गया।
एम्बार नींद में बड़बड़ा रहा था-"पत्नी के हाथों आचार्यजी के प्राण चकनाचूर हो गये।"
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'नहीं, नहीं, तुम्हारे हाथों मेरे प्राण उठो, उठो, यह क्या कुम्भकर्ण की निद्रा ?... अच्वान ने कहा । अच्चान के हाथ के डण्डे ने उसे हिलाना शुरू किया। एम्बार एकदम ऐसे उठ बैठा मानो स्वप्न से जाग उठा हो। वह घबरा रहा था। चारों ओर देखा । अच्चान को भी देखा। वह उठ खड़ा हुआ । कैसा काम हुआ ?" कहता हुआ हाथ मलने लगा। हर्द-गिर्द देखा । वह यात्री वहाँ नहीं था । एम्बार घबरा गया 1
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"यह कहाँ गये ?" उसने अच्चान से पूछा ।
"कहीं जंगल गये होंगे। आ जाएँगे, चलो, देरी हो गयी। अब अपना सब काम झटपट खत्म कर लो।" कहकर उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही अच्वान वहाँ से स्नानागार की ओर चला गया।
अच्चान की बात से कुछ राहत तो हुई, फिर भी एम्बार के मन में शंका-सी रही आयो। उसने जाकर उस जगह को देखा जहाँ वह पान्थ सोया हुआ था। सब सूना-सूना था।
कहीं जंगल - बंगल गया होगा - यही सोचता हुआ वह दरी उठाकर वहाँ से जल्दी जल्दी निकला।
अपने सब काम थोड़े में समाप्त करके तथा जल्दी ही आचार्यजी को अच्छान के सुपुर्द करके खुद आचार्यजी की सन्ध्या, पूजा-पाठ आदि की तैयारी में लग गया। समय- समय पर होनेवाले कार्य कुछ उलट-फेर से हो जाएँ तो नियमित क्रम से कार्य करनेवाले मन को कुछ उलटा-सीधा लगने लगता है। गुजरे हुए समय को मिलाकर उक्त निर्दिष्ट समय के अन्दर कार्य को सँभाल लेना हो तो काम में गड़बड़ी हो ही जाती है। यह मालूम होने पर भी संयम से काम लेना अभी तक मानव ने सीखा नहीं। आचार्य स्नानागार में अभी ठीक तरह से बैठे भी नहीं थे कि अच्चान के हाथ के लोटे का गरम पानी आचार्य पर पड़ा। स्नान हेतु समशीतोष्ण पानी शरीर पर पड़ने से अच्छा लगता है। अभी आचार्य ठीक बैठे भी न थे कि इतने में गरम गरम पानी उनके कान में पड़ गया। आचार्य विचलित हो गये । तुरन्त दर्द के मारे एक आह आचार्य के मुँह से निकल गयी । "क्या हुआ, गुरुजी ?"
आह सुनकर अच्चान घबरा गया। पूछा..
160 :: पट्टमहादेवी शान्तला भाग तीन