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"विजयोत्सव के बाद नहीं. गाणग्रहण महात्सव के बाद।' चट्टला में कहा।
"हाँ, क्या? तब तो तुम्हारे लड़के को सवार-नायक ही बनाना होगा।" बम्मलदेवी ने कहा।
"पट्टमहादेवीजी उसे जब जो चाहें बना सकती हैं।" चट्टला ने कहा।
"हाँ...मैं तो उसे केवल सवार-नायक ही बना सकती हूँ। हमारी पट्टमहादेवीजी जो चाहे बना सकती हैं।" बम्मलदेवी ने कहा।
"वे कभी कोई काम दूसरों के कहने पर करनेवाली नहीं हैं। प्रेम है, इसलिए जिस स्थान के लिए योग्य न हो उस स्थान पर बिठानेवाली भी नहीं। इसलिए बल्लु बढ़ेगा तब वह क्या करना चाहेगा, कौन जाने? क्या बनने की शक्ति वह अर्जन करेगा...सब उसकी शक्ति और सामध्यं पर निर्भर है। अभी उस पर क्यों सोचें? इस राजमहल के आश्रय में वह सुरक्षित है इसलिए हमें उसके बारे में चिन्ता ही नहीं।" चट्टला बोली।
"अच्छा विश्वास है यह।" बम्मलदेवी ने कहा। "नायक ने कुछ बात ही नहीं की?" शान्तलदेवी ने पूछा। "हम बात करनेवाले कौन?"
"हाँ, हाँ, काम करनेवाले हो । काम का फल उठा लाये हो न!" शान्तलदेवी ने कहा।
सब एकदम हँस पड़े। सेविका शिशु के लिए सोने का कड़ा, नया वस्त्र, मिश्री, दो मोहरें एक परात में रखकर ले आयो । शान्तलदेवी ने अपने हाथ से शिशु के दोनों हाथों में एक-एक सिक्का दिया। छोटे बल्लु ने छोटे हाथों में पकड़ लिया।
"मूठ मजबूत है। योद्धा बननेवाले को मूठ मजबूत होनी चाहिए। रेविमय्या, ममय हो तो बच्चे को सन्निधान को दिखाने की व्यवस्था करो। यह मिलना चाहते हैं। चट्टला जाओ, उनका भी आशीर्वाद लेकर आओ।" शान्तलदेवी ने कहा। ___इंगित को समझनेवाला रेविमय्या देख आया और चट्टला-मायण और बल्लु को ले गया।
रानियाँ अपने-अपने विश्रामागार की ओर चली गयीं।
मतान्तर के विषय में चाहे कुछ भी चर्चा हुई हो, इतना तो अवश्य हुआ कि खुलकर विचार-विमर्श हो गया। सभी अपने -अपने मत के बारे में स्वयं
188 :: पट्टाहादेवी शान्ताला : भाग तीन