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"हम इतनी प्राज्ञा नहीं। आचार्यजी ही स्वयं इस सम्बन्ध में कह सकते हैं। सभी बातों में पति की अनुवर्तिनी बनकर रहना ही सती का धर्म है. यह ठीक है या नहीं, इस सम्बन्ध में हमें जानकारी दें।" बम्मलदेवी ने कहा।
"संन्यासी इस विषय में क्या कहेंगे। उन्हें अनुभव ही क्या है ?! चटपट उदयादित्य ने कह दिया।
"न, न, तुमको आचार्यजी के विषय में ऐसा नहीं कहना चाहिए। वे महान ज्ञानी और तपस्वी हैं। हमारे छोटे राजा अभी बचपना करते हैं। जल्दबाज हैं। आचार्यजी को अन्यथा नहीं समझना चाहिए।" शान्तलदेवी ने कहा।
"पट्टमहादेवीजी को परेशान होने की जरूरत नहीं। हमारी किसी भी बात से शान्ति में बाधा नहीं पड़ेगी। अलावा इसके जब विचार-विनिमय होगा, तब सभी के अभिमत व्यक्त होंगे; तभी वास्तविक सत्य प्रकट होता है। अब हम संन्यासी हैं, लेकिन हम भी किसी जमाने में गृहस्थ जीवन से परिचित हुए थे। इतने मात्र से हम नहीं कह सकते कि हमारा अनुभव बहुत विस्तृत है। हम उस भगवान् को 'अणोरणीयान् महतो महीयान्' कहकर पुकारते हैं। अणु भी नहीं, महान् भी नहीं, अणु को महान् और महान् को अणु बना सकने की सामर्थ्य भी हममें नहीं। तब हम केवल उसके सेवक ही बन सकते हैं, इतना ही हम जानते हैं। इसीलिए साक्षात्कार कर सकते हैं। भगवान् हनार मार्गदर्शक हैं। हम केवल उनके अनुवर्ती मात्र हैं। अपने धर्म में व्यवस्थित जीवन व्यतीत करना आवश्यक है, यह कल्पना होने के कारण स्त्री को पत्ति की अनुवर्तिनी होकर रहना कुशलदायक है, यह भाव हुआ। उसी को लेकर जीवन चला आया है। इसलिए छोटी रानीजी के कहने में सत्य है। परिवार में सामंजस्य का होना आवश्यक है। हमें भी यही लगता है।"
"यह ठीक बात है। हम तो वैसे ही चलनेवाली हैं। कितना ही मिलजुलकर रहें, कितनी ही विशाल मनोभावना हो, पति का मत ही सती के लिए श्रेष्ठ मत है।" बम्मलदेवी ने कहा।
"जिनमें आत्म-विश्वास न हो ऐसे लोगों के लिए यह मार्ग है। उससे आत्मोन्नति साध्य नहीं होती, यह मेरी धारणा है। आचार्यजी का क्या अभिमत है?" शान्तलदेवी ने उनकी ओर देखा। उसके पहले बम्मलदेवी की ओर जो देखा, जिसका सामना बम्मलदेवी नहीं कर सकी।
बिट्टिदेव प्रस्तर प्रतिमा की तरह बैठे रहे।
"आत्मोन्नति होता हो तो आत्म-विश्वास होता ही चाहिए। स्त्रीधर्म में ही अटल विश्वास हो तो पति की अनुवर्तिती होकर भी आत्मोन्नति साधी जा सकती है।" आचार्य ने कहा।
196 :: पट्टमहादेवो शान्तला : भाग तीन