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नहीं-इस सम्बन्ध में श्रीश्री की सम्मति है-ऐसा मान सकूँगी?'' शान्तलदेवी
ने पूछा।
"दोनों का एक विश्वास हो तो अच्छा आपस में सामरस्य रूपित कर सकनेवाले भिन्न धर्मियों का दाम्पत्य भी हो सकता है। परन्तु ऐसी स्थिति में आपसी विश्वास बहुत ही मुख्य है। यह उनके आत्म-विश्वास पर निर्भर करता है। जब वह आत्मविश्वास न हो उस हालत में पति का अनुसरण ही उपयुक्त मार्ग है।"
"अब विचार-विमर्श निर्णायक स्तर तक पहुँचा है। श्रीश्री को कष्ट दिया, इसके लिए क्षमा करें। इस सबका मूल कारण मैं ही हूँ।" शान्तलदेवी ने कहा।
"पट्टमहादेवीजी ने हमारी कठिनाई ही को दूर कर दिया। वास्तव में हम उसके लिए उनके कृतज्ञ हैं। इस यादवपुरी में प्रवेश करने के लिए चार महाद्वार हैं। सभी द्वारों से राजपहल तक पहुँचने के लिए सहूलियत होनी चाहिए। एक ही द्वार से यह सहूलियत मिले, यह उचित नहीं। इस विशाल दृष्टिकोण को पट्टमहादेवी ने प्रतिबिम्बित किया है। इतना ही नहीं. उन्होंने यह स्पष्ट घोषित भी कर दिया कि जो जिस द्वार से चाहे आ सकते हैं, और उनके लिए राजमहल का द्वार सदा खुला रहेगा। यह एक महत्वपूर्ण घोषणा है। पोय्सल राज्य में मतस्वातन्त्र्य प्रत्येक प्रजाजन को रहा है, वह आपसी सौहार्द और स्नेहभावना के लिए पूरक रहा है। दाम्पत्य जीवन में भी भिन्न मतीय सामरस्य के साथ सुखी जीवन व्यतीत कर सकते हैं, ऐसी उदारता यहाँ रही, यह बात बड़े महत्त्व की है। इस तत्त्व की मूल शिला स्थापना के रूप में हमने यहाँ लक्ष्मीनारायण मन्दिर के प्रस्तर-विन्यास की योजना बनायी है। इस कार्य को हम परसों त्रयोदशी के दिन सम्पन्न करने की सोच रहे हैं।"
एकदम शान्सलदेवी बोल उठीं, "हाय! हमने यह कैसा काम किया। आज एकादशी है, आचार्यजी का निराहार व्रत है । इसे भूलकर हमने उन्हें बहुत कष्ट दिया। उस तरफ हमारा ध्यान गया ही नहीं। ऐसा काम नहीं करना चाहिए था।"
__ "निराहार मात्र से हम जड़ होकर बैठे नहीं रहेंगे। निराहार केवल पेट के लिए है, मस्तिष्क के लिए कभी निराहार नहीं। आज के इस पुण्य दिन में हमने जो विचार-विमर्श किया वह अत्यन्त श्रेष्ठ है। पट्टमहादेवी, इसपर विचार करने की आवश्यकता ही नहीं। परसों जैसा हमने सोचा है प्रस्तर-विन्यास सम्पन्न हो सकेगा न?"
"इस विषय में श्रीश्री सर्वतन्त्र स्वतन्त्र हैं। इस विषय में राजमहल से पूछना क्या है?" शान्तलदेवी ने कहा।
"हम इसी विषय के बारे में विचार करने के लिए यहाँ आना चाहते थे। इतने में यहाँ से बुलावा आ गया। अच्छा हुआ। इस कार्य को सन्निधान के हाथ से
200 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन