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सम्पन्न कराने का हमारा संकल्प है।"
"यह कार्य हम पर क्यों थोपेंगे? नहीं, यही अच्छा है कि श्रीश्री आचार्यजी के ही हाथ से सम्पन्न हो। वही उत्तम है।"-बिट्टिदेव ने तुरन्त कह दिया।
"ऐसा है तो हमारी रीति के अनुसार सन्निधान की स्वीकृति प्राप्त कराने के लिए पट्टमहादेवीजी से ही निवेदन करना होगा।" कहते हुए आचार्य ने शान्तलदेवी की ओर देखा।
बिट्टिदेव ने कुतूहलपूर्ण दृष्टि से उनकी ओर देखा।
"श्री आचार्य से पुलकित सन्निधान किसी भी रीति से इस प्रस्ताव को अस्वीकृत करना नहीं चाहते। इस मतान्तर के विषय में जब चर्चा हुई तब उनका मन किस तरह डांवाडोल रहा और वे कैसे मौन हो बैठे रहे-यह सब जानते हैं। हम तीनों यहाँ श्री के सांकेतिक रूप से उपस्थित हैं। आचार्यजी की इच्छा को आज्ञा मानकर हम तीनों सन्निधान की स्वीकृति को सम्मिलित रूप से दिला सकती हैं। आगे के कार्यों की व्यवस्था की जा सकती है।" शान्तलदेवी ने कहा।
राजलदेवी और बम्मलदेवी चकित हो देख रही थीं शान्तलदेवी की ओर। शान्तलदेवी की इस रीति को शायद वे नहीं समझ पायीं।
"अच्छा।" कहकर आचार्यजी उठ खड़े हुए। एम्बार ने पादुकाएँ उनके पैरों के पास रखीं। सब लोग उधक अड़े हो ।
"रेविमय्या!" शान्तलदेवी ने पुकारा।
"द्वार पर पालकी तैयार है। अभी चला।" कहकर रेविमय्या द्वार खोलकर चल पड़ा। एम्बार ने उसका अनुसरण किया।
आचार्य एम्बार के पीछे-पीछे चले। आचार्यजी के पीछे महाराज, रानियाँ, उदयादित्य चलने लगे और द्वार पर उनको विदा कर लौट आये। फिर सब इकट्ठे नहीं हुए; अपने-अपने विश्रामगृह की ओर चले गये।
यादवपुरी में बिट्टिदेव के हार्थों लक्ष्मीनारायण मन्दिर का प्रस्तर-विन्यास सम्पन्न हुआ। श्री आचार्यजी को दिये हुए वचन के अनुसार लोगों ने हृदयपूर्वक सहायता दी। देश के अनेक भागों से शिल्पियों को बुलवाया गया। पोय्सल लांछन को उत्कीरित करनेवाले होय्सलाचारी को मन्दिर की पूरी जिम्मेदारी सौंपी गयी थी। अत्यन्त विशाल भी नहीं, बहुत छोटा भी नहीं-इस तरह का एक रेखाचित्र उस मन्दिर का अनाकर होय्सलाचारी ने दिखाया। उसका आकार, नींव, और प्रमाण-सब उसमें दर्शाया
की शान्तला : भाग तीन :: 201