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इसके फलस्वरूप एक दिन आचार्यश्री अपने शिष्य एम्बार के साथ दोपहर के समय राजमहल में पधारे। यह चर्चा केवल अन्त:पुर तक ही सीमित रही। आचार्य, एम्बार, बिट्टिदेव, शान्तलदेवी, उदयादित्य, बम्मलदेवी, राजलदेवीइतने ही लोग मन्त्रणालय में इकट्ठे हुए थे। रेविमय्या चूँकि सभी बातों से परिचित था, इसलिए वह भी उपस्थित रहा।
श्री आचार्यजी को राजमहल के गौरव के साथ मन्त्रणालय में बुला लाये। उनके आसनासीन हो जाने के बाद सब लोग अपने-अपने आसनों पर बैठ गये। थोड़ी देर मौन छाया रहा। यह विचार नहीं किया गया था कि पहले कौन बोले। बिट्टिदेव ने सोचा था कि सामयिक स्फूर्ति के अनुसार जैसा जो होगा हो जाय।
शान्तलदेवी ने देखा कि सब मौन हैं; कब तक ऐसा रहे-इसलिए शान्तलदेवी ने ही आरम्भ किया-"श्री श्री जी के सम्मुख एक बात का निवेदन कर उसके बारे में हम स्पष्ट कर लेना चाहते हैं। इसलिए आपको कष्ट देना पड़ा। राजमहल पर कृपा करके श्री श्री जी हमें क्षमा करें।"
"हम जनार्दन के सेवक हैं। वह सर्वान्तर्यामी हैं, इसलिए उनकी सेवा के लिए हम सदा सर्वदा तैयार हैं। ऐसी सेवा के लिए हम सदा अवसर की ताक में रहते है। ऐसा मौका अपने आप मिले तो वह सौभाग्य की बात है। भगवान् के लिए अपरिहार्य कुछ भी नहीं। उनकी प्रेरणा के अनुसार करेंगे। देखें वह क्या प्रेरणा करेंगे।" आचार्य ने कहा।
"अब तक हमने न मत-परिवर्तन को देखा, न सुना था, वही बात अब उठ खड़ी हुई है। अब तक हमास निश्चय था कि मतान्तर अच्छी प्रवृत्ति नहीं। इस विषय में श्री श्री की क्या राय है? हम जानना चाहते हैं।" शान्तलदेवी ने विनम्र
भाव से कहा। - "पट्टमहादेवीजी का सवाल बहुत ही गम्भीर है। मतान्तर अच्छा-बुरा दोनों हो सकता है। निश्चित सन्दर्भ, सम्भावित सन्निवेश, व्यक्ति–इनके बारे में निर्दिष्ट रूप से जानकारी हो जाय तो भगवान् की प्रेरणा होगी उसके अनुसार कहेंगे।"
"मनुष्य जिस मत का होकर जन्म लेता है उसका उसी में रहकर साक्षात्कार प्राप्त करना श्रेष्ठ है न?" शान्तलदेवी ने पूछा।
"कौन नहीं कहेगा? वही श्रेष्ठ मार्ग है।" आचार्य ने कहा।
"तो मतान्तर से गड़बड़ी ही पैदा होगी न? अपने श्रेष्ठ मार्ग को छोड़कर किसी दूसरे को ढूंढने जाना मूर्खता न होगी?''
"विश्वास यदि अच्छी तरह से जड़ जमाये हो तो मतान्तर की आवश्यकता नहीं होगी। क्योंकि विश्वास के ही आधार पर साक्षात्कार सम्भव है। परन्तु
190 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन