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आपके सन्निधान ने जो उदारता दिखायी, उसके लिए बाह्य दबाव नहीं, यह तो सबको मालूम है। यही हम मानते हैं।"
बम्मलदेवी और राजलदेवी के चेहरे पर जैसे विजय का भाव झलक पड़ा। शान्तलदेवी ने भी उनके इस भाव को पढ़ लिया। सन्निधान शायद कुछ कहें: इस इरादे से उन्होंने उनकी ओर देखा। वे निर्लिप्त से बैठे थे।
"सन्निधान की पाणिगृहीत सन्निधान का मार्ग ही अनुसार करे . - यही उनका धर्म है न?" बम्मलदेवी ने मौन को तोड़ते हुए कहा। उसे अब एक आधार मिल गया था। उसे लगा था कि सन्निधान की रीति में कोई अनुचित बात नहीं थी; इसी धीरज के साथ उसने कहा।
शान्तलदेवी ने सोचा-यह तो विषयान्तर हो गया। इसीलिए कहा, "इस बात को रहने दें, यह कोई समस्या नहीं। उससे अधिक प्रमुख बात वह है। क्योकि उसकी व्यापकता, उस हवा पर अवलम्बित है जो जिधर चाहे बह सकती है..." बम्मलदेवी की बात को वहीं तक रोक दिया।
"पट्टमहादेवीजी का मनोगत क्या है...सो हमारी समझ में नहीं आया।" आचार्य ने कहा।
__ "आपने बताया कि आपके जन्म-देश के राजा के कानों तक आपकी आवाज पहुंची ही नहीं। इसके पीछे 'यदि पहुँचती तो अच्छा था' यह आपके कथन का निहितार्थ है। क्या मैं यह समझैं कि उनके कानों तक पहुँचाने की कोशिश की गयी थी?"
___ "अपने अनुभव के सार-सर्वस्व को पहुंचाना और उसे समझाना ही जब हमारा उद्देश्य है तो राजा उस प्रेरणा के अपवाद कैसे हो सकेंगे?"
"तो मतलब हुआ कि आपका प्रयत्न सफल नहीं हुआ, यही न?" "हमने ही कहा न कि नहीं हुआ।"
"इसी परिस्थिति की पृष्ठभूमि पर विचार करेंगे तो श्री श्री के आने का उद्देश्य यहाँ के राजा के कानों तक अपनी आवाज पहुँचाना ही था, यह सहज सिद्ध है। है न?"
"इसमें गलती क्या है?'' आचार्य ने प्रश्न किया।
"मेरे मन में गलतो का विचार नहीं। पाण्ड्य और चेर प्रदेश में जाना छोड़कर इतनी दूर आचार्यजी ने आने का विचार किया तो खूब सौच-समझकर ही किया होगा?"
"हाँ, कावेरी पुण्य-सलिला है। हमने श्रीरंग के रंगनाथ को भी अपने बाहुओं में लेकर मातृप्रेम का प्रदर्शन किया है। ऐसी पावन-सलिला कावेरी के जन्म-देश में आना और अगस्त्याश्रम का सन्दर्शन कर उसी पवित्र-सलिला का
पट्टमहादेो शान्तला : भाग तीन :: 193