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शान्तिपूर्वक विचार रख सके।
शान्तलदेवी सब तरह से विचार कर अपने निर्णय पर ही पहुँच चुकी थीं। विश्वास ऐसी वस्तु है जिसे हिला-डुलाकर देखने की जरूरत नहीं। वह जन्म से मृत्युपर्यन्त स्थायी रहना चाहिए। इसमें परिवर्तन होने का अर्थ है फिर से शुरू से जा-रे-सीखने की कोश: ना, नौजन, वाय फिर अन्त-यही क्रम शाश्वत है। उसे छोड़कर उस क्रम से हट जाना अच्छा नहीं।"दूसरे चाहे जैसा बरतें, मैं अपने विश्वास से हटनेवाली नहीं"-इस दृढ निश्चय पर शान्तलदेवो पहुँच गयी थीं।
बम्मलदेवो में वास्तव में इस विषय में विशेष सोचने-विचारने की शक्ति नहीं थी। एक तरह से उसका यही विश्वास था; 'पति का जो निर्णय होगा वही अपना निर्णय है। वही हितकर है। उसकी अच्छाई-बुराई स्वामी के ली हाथ होगी। मैं उनकी पदानुगामिनी मात्र हूँ'-यही उसका निर्णय था।
बाल्य से पालन-पोषण करनेवाले मंचिअरस के आराध्य शिव थे इसलिए राजलदेवी भी शिव पर विश्वास रखती रही। वास्तव में वह परिस्थिति के जाल में फँसकर वैयक्तिक भावनाओं को प्रकट करना नहीं चाहती। किसी दायित्व के बिना जो मिले उसी के साथ हिल-मिलकर रह जाना अच्छा-संघर्षरहित जीवन के लिए बम्मलदेवी का ही अनुसरण अपने लिए भी श्रेयस्कर मान लिया था राजलदेवी ने।
बिट्टिदेव का मानसिक संघर्ष बढ़ गया। सच है, उत्साह में वे वचन जो दे बैठे। उस समय उनके मन में दो ही बातें थीं। एक, अन्य किसी से जो न हो सका था उसे साधकर दिखानेवाले में महानता जरूर है। उनका अनुसरण करने में कोई बुराई नहीं, क्यों नहीं होना चाहिए? ऐसा वह सोचते थे। अब यह इतने से ही समाप्त नहीं हो जाता। यह अधिक व्यापक है। खुद महाराज की अपने व्यवहार की रीति अनुकरण योग्य होनी चाहिए, क्योंकि प्रजा उसका अनुसरण करेगी। जिस विश्वास का त्याग किया, उसपर दूसरों का विश्वास कैसे जमेगा? शान्तलदेवी ने जो सवाल उठाया यह विचारणीय अवश्य है। उनकी शंका के अनुसार इसकी प्रतिक्रया यदि सारे राष्ट्र में हुई तो वह राष्ट्र की उन्नति के लिए कण्टक ही बन जाएगी। परन्तु वचन दिया है। शान्तलदेवी के कहे अनुसार इस पर खुले दिल से विचार करना ही उचित है।
यों इन्होंने अपना-अपना निर्णय कर लिया। फलस्वरूप राजमहल का वातावरण शान्त रहा, इसी तरह कुछ समय बीता। इस विषय की चर्चा करने की बात को लेकर फिर शान्तलदेवी ने सवाल नहीं उठाया। चर्चा करना अच्छा है उनकी सलाह के अनुसार-यह बिट्टिदेव की भी भावना रही। इसकी व्यवस्था करने के हेतु उन्होंने रेविमय्या से विचार-विनिमय किया।
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 189