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दूसरे दिन भोजन के बाद पान खाने के लिए प्रागण में महाराज, रानियां आदि सब इकट्ठा हुए। इस अवसर पर शान्तलदेवी ने कल सम्पन्न हुई सार्वजनिक सभा की बात छेड़ी।
"सन्निधान. 'यदि मेरी गलती हो तो क्षमा करें । राजमहल का व्यवहार सारी प्रजा के सन्तोष का भाजन बनेगा—ऐसा मुझे नहीं लगता।" शान्तलदेवी ने कहा।
"कौन-सा व्यवहार?" बिट्टिदेव ने पूछा।
"राजकुमारी का स्वास्थ्य आश्चर्यजनक ढंग से सुधरा-यह सत्य है। परन्तु इसके लिए हमने राजमहल में जो सम्मान दिया-वही पर्याप्त था। वह उचित भी था। फिर श्री आचार्यजी की नगर-प्रदक्षिणा, राजमहल के अहाते में सभा-यह सब कुछ ज्यादाती हुई न? इन सबका दुरुपयोग होगा न? राजमहल को ऐसी बातों के लिए अषसर नहीं देना चाहिए न?" शान्तलदेवी ने प्रश्न किया।
"ऐसा कहीं होता है ? वास्तव में वह राजमहल को कृतज्ञता का प्रतीक है।" बिट्टिदेव बोले।
"राजमहल के अन्दर आह्वानित प्रतिष्ठित व्यक्तियों के बीच जो हुआ वह क्या था?''
"वह भी कृतज्ञता का ही प्रतीक था।" ''तो कृतज्ञता के प्रदर्शन को ऐसी क्रियाएँ और भी हैं?' "क्यों, पट्टमहादेवी को यह अच्छा नहीं लगा?" "यह अच्छा लगने या न लगने की बात नहीं । यह प्रजा को प्रतिक्रिया की बात
"तो क्या यही निर्णय है कि जो किया सो अनुचित है?'' "निर्णय करने का अधिकार सदा सन्निधान का है। मैं क्या चीज हूँ?" "पहले पूछा नहीं, इसलिए अपनी असन्तुष्टि दिखाने की रोति है यह?"
''मैंने कभी नहीं चाहा कि मुझसे पूर्छ । परन्तु, मुझे इससे जो प्रतीत हो रहा है, उसे कहे बिना स्वयं को वंचित रखना भी नहीं चाहती। एक बात बता दूं? पहले राज करनेवाले महास्वामी की प्राणरक्षा करनेवाले चारुकीर्ति पण्डितजी को 'बल्लाल जीवरक्षक' की उपाधि से अलंकृत किया, उनकी भी इतनी प्रशंसा नहीं की; प्राणरक्षा करनेवाली चट्टलदेवी या बम्मलदेवी का इस तरह जुलूस निकाला गया? उन लोगों ने जो कार्य किया वह अभी जो हुआ उससे कम है क्या?"
इस बात को सुन बम्मलदेवी का चेहरा खिल उठा। "यह एक चमत्कार है। ये देवांश सम्भूत महापुरुष हैं।" बिट्टिदेव ने कहा। ।"चमत्कार में सन्निधान का विश्वास है?'' "मन अब विश्वास करना चाहता है।"
पट्टमहादेवी शान्तला , भाग तीग :: 117