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हैं जिन्हें बच्चों के लिए पिता को ही करने होते हैं। सीधा पिता से सम्पर्क करने का साहस बच्चों में नहीं होता। इसलिए माँ का आश्रय ले माँ के जरिये पिता के प्रेम का अर्जन कर अपनी आकांक्षाओं को पूर्ण कर लेते हैं न इसी तरह बह परतत्त्व महाविष्णु है। उनका प्रेम अर्जित करना हो तो श्रीदेवी का आश्रय लेकर उनके द्वारा प्रेम अर्जित कर साधना में सिद्धि प्राप्त करना भक्तिप्रधान मार्ग हैं। वह सुलभ मार्ग है और वही औचित्यपूर्ण मार्ग है।" यह बात अच्छी तरह से आचार्यजी ने लोगों को समझायी।
इन बातों को समझाते समय जनता में अधिक अभिरुचि उत्पन्न हो गयी थी, यह स्पष्ट लक्षित हो रहा था।
प्रतिदिन अपने जीवन में जो घटता रहता है उसी को उदाहरण के रूप में लेकर समझाने पर कौन नहीं समझ सकता? उन्होंने बौद्धिक ज्ञान मार्ग से, भक्तिभाव के लिए अधिक प्रमुखता दी थी। श्रोताओं की प्रतिक्रिया को बहुत जल्दी समझ सकने की उनकी शक्ति अपार थी। उनकी आँखें श्रोताओं के हृदयतल तक पहुँच सकती थीं । श्रोताओं के मुख पर भावावेश की स्फूर्ति लक्षित हो रही थी इसे देखकर आचार्य की ध्वनि और गम्भीर हो गयी। उन्होंने कहा --
"इस भक्त समूह के सामने हमें एक बात स्वीकार करनी है। आप सभी के प्रीतिपात्र, आपके आराज्य राजदम्पतियों ने कलमी लोभ उत्पन्न हो - इस तरह का महान् दान दिया है। हम इस उक्ति पर विश्वास करते हैं-"नो विष्णुः पृथ्वीपतिः । " साथ ही, हमारे परतत्त्व भी महाविष्णु के रूप में हमारे आराध्य देव हैं। आपके प्रभु का नाम कुछ भी रहे हमारे लिए वे विष्णु हैं। हम आइन्दा उन्हें विष्णु के ही नाम से सम्बोधित करेंगे। इसके लिए एक कारण और है। अपने आराध्य देव महाविष्णु में हमने जिस भक्ति को समर्पित किया, उनके आश्रयदाता बनकर उन्होंने श्रीवैष्णव सिद्धान्त के वर्धन कार्य में हमें आशातीत सहायता दी है। आगे भी वे मदद करेंगे। विष्णुवर्धन के नाम से ख्याति प्राप्त होकर उनकी कीर्ति आचन्द्रार्क स्थायी होकर रहेगी। हमारे अन्तरंग में अंकुरित यह भावना अब इस रूप में प्रकट हुई है। हमारी इस भावना के साक्षी के रूप मैं हम इस निर्णय पर पहुँचे हैं। इसी यादवपुरी में विष्णुवर्धन बने आपके महाराज ने जो अपार धन दान दिया है, उसे व्यय करके उन्हीं के नाम से लक्ष्मीनारायण मन्दिर हमारे राजदम्पती के मनोनैर्मल्य और हृदय की विशालता के प्रतीक के रूप में निर्माण कराने का निर्णय किया है। हमारे सचिव नागिदेवण्णाजी ने इस कार्य में मदद देने का वचन दिया है। हमारे महाराज से कहकर और अधिक मदद कराने की भी बात उन्होंने कही। हमने उसे स्वीकार नहीं किया। देनेवाले दाता समझकर लूटना उचित नहीं। इसके अलावा मन्दिर तो जनता की भक्ति का
पट्टमहादेवी शान्तला भाग तीन : 175