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बहू विस्तार के साथ सुनाया। राजकुमारी स्वस्थ हो जाएँ - इसी उद्देश्य को लेकर इस पति-पत्नी ने मनौती मान ली थी और उस मनौती को चढ़ाने के लिए वांछित फल प्राप्त करने के इरादे से ही वह वहाँ गया था। उसके उस विश्वास का फल वहाँ से लौटते ही उसे मिल गया- यही न हुआ?" कहकर उन्होंने बिट्टिदेव की ओर देखा ।
वह कुछ विन्न्रलित हुए। इतने में तेजम ने कहा, "यहाँ आने तक मुझे प्रतीक्षा 'करने की आवश्यकता नहीं रही, पट्टमहादेवीजी । वहाँ स्वामी ने ही अपने दायें अँगूठे से प्रसाद देने की कृपा की। तभी मुझे लगा कि मेरा अभीष्ट पूरा हो गया। हमारे बाहुबली स्वामी पर जो विश्वास रखते हैं वे अवश्य उनका उद्धार करेंगे ही। वे महान् त्यागमूर्ति ही हैं न?" उसके कहने में बहुत उत्साह था ।
"तुमने मनौती कब चढ़ायी ?” शान्तलदेवी ने पूछा ।
44 'आज सप्तमी है न? परसों चौथ के दिन।" तेजम ने कहा ।
"मनौती चढ़ाते वक्त तुमने पुजारीजी से यह बात कही थी ?" शान्तलदेवी ने
पूछा ।
"कही थी। राजमहल की बात कहने पर श्रद्धा बढ़ती है। मैं तीज की शाम तक वहाँ पहुँच गया था। उसी दिन शाम को उनसे मिलकर सब विस्तार के साथ समझा दिया। उन्होंने विधिवत् सांगोपांग अर्चना की। दूसरे दिन सुबह तड़के उठकर स्नान आदि से निवृत्त हो, वे और मैं दोनों विन्ध्यगिरि पर चढ़ गये। उनकी पूजा दो प्रहर तक चली। उस समय मुझे एक तरह की मानसिक शान्ति मिली जो अनिर्वचनीय है।"
"तुम्हारी मनः शान्ति और तुम्हारी मनौती के लिए प्राप्त फल - इस सबका मूलाधार तुम्हारा अटल विश्वास और तुम्हारी श्रद्धा और भक्ति है। पोचिक ! राजकुमारी को दिखाओ, तुम्हारे पति देखें। उसकी मनौती के फल को वह प्रत्यक्ष देख लें । आज तुम अपने घर जा सकती हो। जब तुमसे हो तब आकर यहाँ का काम जितना हो सकता हो देख लेना। ठीक. अब जाओ।" शान्तलदेवी ने कहा।
'वे दोनों अपने को कृतकृत्य समझकर हर्षित होकर वहाँ से चले गये ।
" एक ही दिन एक जगह एक को प्रत्यक्ष साक्षात्कार ! दूसरी जगह परोक्ष साक्षात्कार । यों देखा जाय तो दोनों ही चमत्कार हैं। दोनों ही विश्वास का फल हैं। इन दोनों में कौन अधिक और कौन कप ? सन्निधान ही कहें।" शान्तलदेवी ने कहा "यहाँ की बात जानकर उसके अनुरूप अपना किस्सा गढ़ लिया होगा । " बिट्टिदेव ने कहा ।
"यह तो दोषारोपण हुआ। निर्णय देने के स्थान पर रहनेवाले सन्निधान को दोषारोपण नहीं करना चाहिए।"
182 :: पट्टमहादेवी शान्तला भाग तीन