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"अब भी सन्निधान का मत राष्ट्र में रहनेवाले अन्य मतों में से एक है। तब भी एक हो रहेगा, इसमें क्या फर्क पड़ता है?" बम्पलदेवी ने प्रश्न किया।
"एक साधारण व्यक्ति मत परिवर्तन कर ले तो इसपर लोग ध्यान नहीं देंगे। लेकिन पहाराज कर लें तो लोग क्या कहेंगे, समझी हैं? कहेंगे महाराज अब तक जिस मत के अनुयायी रहे, उसमें कोई सार नहीं; इसलिए उन्होंने दूसरे मत का अवलम्बन किया।'' शान्तलदेवी ने कहा।
"कहने दीजिए, उससे होता क्या है?" अम्मलदेवी ने कहा।
'उससे भारी आन्दोलन उठ खड़ा होगा। अब तक अपने आप में सन्तुष्ट रहनेवाले जैनों को यहाँ रहना मुश्किल हो जाएगा।" शान्तलदेवी ने कहा।
"वह भी तो धर्म-प्रेम के स्वाभिमान की एक भावना है।" धोरे से राजल देवी ने कहा।
"तो" शान्तलदेवी ने कहा।
"पट्टमहादेवी को जैन मत में प्रेम और अभिमान है, इस कारण से ऐसा भय उत्पन्न हुआ है। जैनियों में यदि ऐसा साहस हो, सत्त्व हो तब वे सबका सामना करेंगे। बड़े-बड़े भट्टारक जब मौजूद हैं तब चिन्ता क्यों?'' राजलदेवी बोली।
"यह श्रीमदाचार्य और हैन गुरुपों में सोनेगले काम के लिए लाग हो सकने वाली बात है। इस सम्बन्ध में प्रभु के व्यवहार के कारण किसी को भी प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से अड़चन नहीं होना चाहिए। प्रजा तक क्यों जाएँ, मेरे लिए ही यह अड़चन बन जाएगी।" शान्तलदेवी ने कहा।
"अड़चन क्यों? प्रभु का अनुगमन करेंगी तो अड़चन का प्रश्न कहाँ?" राजलदेवी ने कहा।
"तो क्या आप लोग हाल में जैन मतावलम्बो हुई?"
"नहीं। ऐसा होता तो हम स्वीकार कर लेती। हम केवल अनुयायी मात्र हैं।" राजलदेवी ने कहा।
"तो आज शैव, कल जैन, परसों वैष्णव...?" शान्तलदेवी ने कहा। "सन्निधान बार-बार मतान्तर करनेवाले तो नहीं हैं न?" राजलदेवी ने कहा।
"कौन जाने? एक बार जब मन बदलता है, तब कौन जाने वह दुबारा भी न बदलेगा, कैसे विश्वास करें?'' शान्तलदेवी ने शंका प्रकट की।
"आपसे अधिक उन्हें समझनेवाला है ही कौन? यदि आप ही उन पर अविश्वास करेंगी तो इस राजमहल में समरसता कैसे रहेगी?'' अम्मलदेवी ने पूछा।
''कोई किसी को पूर्ण रूप से समझ नहीं सकता। उन्हें जितने लोग जानते हैं उन सबसे कुछ अधिक मैं जानता हूँ- इतना ही कह सकती हूँ। वास्तव में दिल खोलकर कहूँ तो यह कह सकती हूँ कि मैंने कभी सोचा तक न था कि किसी
124 :: पट्टमहादेवः शन्तला : भाग तीन