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"उसने जो कहा उसकी सत्यता के लिए गवाही चाहिए न?'
"सन्निधान की आज्ञा पाकर उसने मनौती नहीं मानी। सन्निधान की आज्ञा लेकर वह बेलगोल नहीं गया। उसको उस क्रिया में सत्यनिष्ठा के सिवा और कुछ हो ही नहीं सकता। ऐसी हालत में परोक्ष रूप से उसने जो देखा उसे मान लेने की उदारता हममें नहीं हो, तो उसने हम पर और राजकुमारी पर स्वयं प्रेरित होकर जो प्रेम और श्रद्धा दर्शायो उसका मूल्य ही क्या रहा? केवल युद्ध करके राज्य का विस्तार कर खुद अपनी शाबाशी कर लेने मात्र से ही प्रभु का कर्तव्य पूर्ण नहीं हो जाता। प्रजा की प्रीति, प्रेम और उन पर विश्वास हमारी ओर से उन्हें मिलना ही चाहिए।'' .
"हाँ, तुम्हारी इच्छा! अभी यह विषय गौण है। उस पर और जिज्ञासा नहीं।"
"खुद चाहें तो प्रधान होता है, नहीं तो गौण । तेजम जैसे प्रजा की शक्ति ही राजघराने का बल है। वह कभी गौण नहीं हो सकती। यह मेरी राय है।''
"हाँ, हमने माना।"
बात वहीं तक रुक सकती थी। तब तक मौन प्रेक्षिका की तरह बम्मलदेवी ने कहा, "अविनय के लिए क्षमा करें, हमें जो ठीक ऊँचे उसका प्रसार करने में गलती क्या है ?"
"गलतो कुछ नहीं। परन्तु उस प्रसार के सूत्रधार कौन हैं-इसपर उचित - अनुचित की बात का विचार करना होता है।" शान्तलदेवी ने कहा।
"तो श्री श्री आचार्यजी प्रचार कर लें। सन्निधान को उसमें भाग लेना उचित नहीं। यही पट्टमहादेवी की राय है न?"
"हाँ, यह मेरी निश्चित राय है।" "स्वयं सन्निधान इसमें भाग लेना सही मानें तो उन्हें क्या करना होगा?''
"इसके लिए उत्तर दूँगी। पहले यह मालूम होना चाहिए कि श्री आचार्यजी के मार्ग के विषय में सन्निधान की क्या भावना है।" शान्तलदेवी ने कहा।
"मुझे वह सही लगता है और यह आसान मार्ग भी है।" बिदिदेव ने कहा।
"तो यही अगला कदम होगा...उनका अनुयायी होना। इसका मतलब हुआ भिन्न मत स्वीकार- यही न?" शान्तलदेवी ने प्रश्न किया।
"हाँ, मतलब यही हुआ।" बिट्टिदेव बोले। "तब किस्सा खत्म!" शान्तलदेवी ने कहा। उनके स्वर में एक दृढ़ता थी। "इसके क्या माने?" बिट्टिदेव ने प्रश्न किया।
'सन्निधान प्रजा की एकता का प्रतीक हैं। इसलिए सन्निधान को सभी मत. धर्मों पर समान रूप से प्रीति और आदर की भावना होनी चाहिए। अब एक अन्य मत स्वीकार कर लें तो बाकी लोगों का क्या हाल होगा?" शान्तलदेवी ने प्रश्न किया।
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 123