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ने मन्दिर में ही ठहरकर अच्बान को जुलूस के साथ जाने की सहूलियत कर दी थी। उसकी खुशी का ठिकाना न था। इस तरह का वैभवपूर्ण स्वागत 'उसने जीवनभर में कभी नहीं देखा था। सुबह की सारी अष्टसण्ट बातें उसके दिमाग से उड़ गयी थीं। आचार्यजी की पालकी के बगल में वह मस्त हाथी की तरह कदम बढ़ासा चल रहा था। इधर-उधर लोगों की भीड़ को बीच-बीच में देख लेता और उनके हर्षोद्गार को सुन लेता। उसकी यह भावना बन गयी थी कि पालकी में पन्थी मारकर बैठे आचार्य ही साक्षात् महाविष्णु हैं, और खुद द्वारपाल या अंगरक्षक बनकर खड़ा है।
आचार्यजी को माला समर्पित करनेवाला, आरती उतारनेवाला, भेंट समर्पित करनेवाला, फल-ताम्बूल हस्तस्पर्श करवाकर लौटानेवाला-सब कुछ वही था। उसकी खुशी का क्या कहना!
उसे एकदम वहीं अपने दैनिक कार्य का दृश्य याद हो गया। वह गरम रेत, उस पर फैला हुआ आचार्य का कोमल शरीर, रक्षक बनने की उसकी जिम्मेदारी!
हाँ, उस दिन से मातृवात्सल्य भाव से उसने आचार्य की देखभाल की थी। उस दिन और आज का यह दिन-कितना अन्तर है ! तब भी वह साथ रहा, आज भी है। परन्तु उस और इस दिन में इतना अन्तर !
पुत्र के वैभव से माँ को होनेवाला आनन्द, भक्त का आनन्द, शिष्य, सेवक का आनन्द, रक्षक की कृतकृत्यता-पता नहीं क्या-क्या-सभी से हो सकनेवाले आनन्द को उसने एक साथ अनुभव किया।
जुलूस राजवीथियों से होता हुआ सभा-मंच के पास पहुँचा। आचार्यजी पालकी से उतरकर मंच पर जा विराजे। चारों ओर नजर दौड़ायी। इशारे से नागिदेवपणा को पास बुलाया। पूछा, "महाराज अभी नहीं आये?"
"नहीं, वे नहीं आएंगे। उनकी राय है कि खुद उपस्थित रहेंगे तो जनता के हृदय तक पहुँचने में आचार्यजी को विशेष सहूलियत न रहेगी। इसलिए नहीं आये।"
"यह बात आपने पहले नहीं बतायी.?''
"आपने पहले इस बारे में पूछा नहीं, यह भाग्य की बात है। मन्त्री-पद सुखसन्तोष की गद्दी नहीं। यह काँटों का बिछौना है। सन्निधान की आज्ञा का उल्लंघन नहीं होना चाहिए, यही हमारा कर्तव्य है। सब कार्य इंगितज्ञता से करना होता है; यह काम बहुत कठिन है। एक अकेली हमारी पट्टमहादेवीजी हैं जो महान् हैं। बहुत मेधाविनी इंगितज्ञा हैं। उनके कारण हम जीवित हैं।" नागिदेवण्णा ने कहा।
"सो ठीक भी है।" "क्या?" "महाराज ने जो सोचा है। जनता के साथ सीधा सम्पर्क रखना हमारे लिए
पदमहादेवो शान्तला : भाग तीन :: 115