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प्रतीक होना चाहिए। हमारे इस संकल्प की सिद्धि के लिए यादवपुर की जनता को सहायक बनना होगा। यही हमारी विनती है।" इतना कहकर भाषण समाप्त किया।
'मदद करना हमारा अहोभाग्य है।" "मदद करना परम भाग्य की बात है।" "इससे बढ़कर श्रेष्ठ कार्य और हो ही क्या सकता है?" यों भावावेशपूर्ण उद्गार एक के बाद एक निकलने लगे।
उस भरी सभा में से एक व्यक्ति उठा। आचार्यजी के सामने आया, झुककर प्रणाम किया। कहा, "श्री श्री जी से मेरी एक विनती है। मैं एक प्रसिद्ध खनक हूँ। लक्ष्मीनारायण मन्दिर के लिए आवश्यक पत्थर मैं अपनी तरफ से दूंगा।"
'इसी तरह से लकड़ी पहुँचाने के लिए आवश्यक शकट, भोजन आदि सामानसरंजाम के लिए आवाजाही की व्यवस्था आदि अनेक कार्यों की व्यवस्था का उत्तरदायित्व स्व प्रशि होकर लोगों ने अपने
हो कुम २ दे सकते थे उन्होंने श्रमदान को स्वीकार कर लिया।
आचार्यजी ने कृतकृत्यता के आनन्द का अनुभव किया। प्रसन्नतापूर्वक सभा में प्रवाहित उत्साह की धारा का आचार्य ने आनन्दपूर्वक अनुभव किया। उनका अन्तरंग कह रहा था-"काश! इस समय यदि वह शिल्पी होता।"
दूसरे दिन मन्दिर के निर्माण हेतु प्रमुख पौरों की एक सभा नागिदेवण्णा के नेतृत्व में बुलाने का निर्णय करने के पश्चात् मंगलगीत के साथ सभा को विसर्जित करना शेष था।
तभी सभा के बीच में से एक व्यक्ति उठ खड़ा हुआ। एक कम्बल ओढ़ा हुआ था। हाथ भर की मोटी पगड़ी, पगड़ी के भार से कुछ झुककर रास्ता बनाता हुआ वह व्यक्ति मंच पर चढ़ा। सिर झुकाकर आचार्य को प्रणाम किया।
पास खड़े नागिदेवण्णा कुछ घबरा गये। यह पीछे हट गये।
आचार्यजी ने उस व्यक्ति के चेहरे को देखा विस्मयपूर्ण सन्तोष की एक लहर उनके चेहरे पर दौड़ गयी।
"श्री श्री जी को मेरा परिचय है?" "हमारा विष्णु सर्वान्तर्यामी है" कहकर आचार्यजी मुस्कुराये। मंगल गीत के साथ सभा विसर्जित हुई।
यह सब जानकर पट्टमहादेवीजी अपने मन में कहने लगी-'यह कुछ ज्यादती ही हुई है।
176 :: पट्टमहादेवो शान्तला : भाग तीन