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"वह नहीं आएगा। हमने सावधान किया था, फिर भी तुम लोगों ने उसे छेड़ दिया। इसलिए वह चला गया।" आचार्यजी ने मानो फैसला ही सुना दिया। __ "स्मरण नहीं होता कि हमने ऐसी कोई बात की हो।"
"स्मरण नहीं रह सकता है। जो बातें जोश में होती हैं, वे याद नहीं रहती। और फिर जो बात हमारे लिए बिलकुल साधारण लगती है वह भी सूक्ष्ममतिवालों पर बहुत प्रभाव डालती है।"
"हमें कुछ सूझा नहीं, गुरुजी। जब से जगे तब से उसे एक बार भी देखा नहीं। इसलिए मन खिन्न हो गया है। यह सत्य है।"
"इसीलिए तुम्हारे और अच्चान के काम आज कुछ उल्टे-सीधे हो रहे थे। अच्छा जाने दो। तुम लोग क्या करोगे? सब सबके अन्तरतम को नहीं समझ सकते।"
__ "अन्तरंग को समझने की शक्ति न होने पर भी, दूसरों को दुःख न हो-इस तरह व्यवहार करना--यह बात आपकी रोया में रखकर थोड़ा-बहुत तो सीख गये हैं।" एम्बार की बातों में अपने व्यवहार के समर्थन की ध्वनि स्पष्ट लगती थी।
"ऐसा है तो कल रात को जो बातें हुई उन्हें ज्यों-का-त्यों बताओ।"
एम्बार ने सब बताया। आचार्यजी ने मौन होकर सब सुना। और कहा. "तुम लोगों का व्यवहार सहज है। फिर भी उसके बारे में जानने की एक तीव्र जिज्ञासा थी, यह तुम लोगों की बातों से स्पष्ट है; तुम लोगों की दृष्टि ओपलगाम लगी दृष्टि-सी है। अब जो हाथ से निकल गया उसे सोचने से भी क्या फायदा है। उसे भूल जाओ। उसके यहाँ आने पर हममें एक आशा उत्पन्न हुई थी। उसके न रहने पर वह आशा आशा ही रह गयी। शायद हमारी आशा में कुछ स्वार्थ की बू होगी। इसीलिए ऐसा हुआ।" कहकर आचार्यजी ने ऊपर की ओर देखा, फिर मौन हो गये।
एम्बार सोचने लगा, 'हाँ, हममें उनके बारे में जानने का हठ तो नहीं रहा। फिर भी... गत रात की सारी बातें याद हो आयीं। स्नान की बात, कहाँ हुआ था, छानबीन की थी। फिर अचान का यह पूछना. आपका निवास-स्थान कौन-सा, प्रश्न सुनकर हाथ का कौर हाथ में ही रह जाना, कड़वी याद की बात आने पर उसके उत्तर देने की रीति, जल्दी-जल्दी खाने का यह ढंग-आदि सब बातें एक के बाद एक याद आयीं। आचार्यजी से बातचीत हो जाने के बाद सुबह से जो संघर्ष मन में चल रहा था वह अब नहीं रहा। मन स्थायित्व को प्राप्त कर रहा था। एक-एक बात को तौलकर देखा । आचार्यजी का निर्णय उसे ठीक लगा। उसके बारे में जानने की तीव्र आसक्ति ने कितना अनर्थ कर डाला--इस बात का पता भी उसे लग गया।
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 167