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"हम भी वही सोच रहे हैं, गुरुजो।" एम्बार के मुंह से मन्द स्वर में निकला।
आचार्यजी कुछ बोले बिना लौट गये। एम्बार उनके पीछे चला गया। आचार्यजी अपने स्थान पर गये और बैठकर कुछ सोचने लगे। एम्बार खड़ा ही रहा। उसकी ओर भी उनका ध्यान नहीं गया। इस विषय में एम्बार जो सोच रहा था सो सब आचार्यजी से कह देने के लिए वह तड़प रहा था।
उधर पाकशाला में अच्चान भी यही सोचता हुआ बैठा रहा। इतने में राजमहल के नौकरों का एक शुण्ड ही वहाँ आ गया। दो भरी गाड़ियाँ भी उनके साथ आयौं। नौकर आहार-सामग्री से भरी टोकरियाँ, शाक-भाजी को टोकरियाँदूध, दही, मक्खन के घड़े आदि लाये थे। उन सब चीजों को पाकशाला से संलग्न कमरे में करीने से रखा गया। इसके बाद नौकरों में से एक ने कहा, "अब थोड़ी देर में मन्त्रीजी पधारनेवाले हैं। स्वामीजी को खबर देने के लिए कहा है। उनकी आज्ञा के अनुसार सारा सामान आपको सौंपकर आने को कहा, सब वहाँ रख दिया है। अब आज्ञा हो तो हम चलेंगे।" और प्रणाम करके वे चले गये।
अच्चान ने इतनी सारी चीजें एकसाथ, जीवन-भर में कभी देखी न थीं । बह खुशी से फूल उठा। परन्तु उसके मन में जो चिन्ता थी उसके कारण वह इस सन्तोष का वास्तविक सुख अनुभव नहीं कर सका। फिर भी चिन्ता का भार कुछ कम हुआसा लग रहा था। चूल्हा ठीक-ठाक करके बरतन -बासन ढंककर वह सीधा आचार्यजी के पास आ गया।
एम्बार परदे के पास में खड़ा रहा। उसकी ओर अभी तक आचार्यजी का ध्यान नहीं गया था। अचान ने उसे देखा। इशारे से बाहर बुलाया। एम्बार ने राजमहल से सामग्री के आने और मन्त्रीजी के पधारने की सूचना दी।
इस समाचार को आचार्यजी के कानों तक पहुंचाना उसका कर्तव्य था। कर्तव्य-पालन की निष्ठा के कारण अन्तर की चिन्ता कुछ मन्द पड़ी।
उसने खुद आचार्यजो को समाचार सुना देने की बात कहकर अच्चान को भेज दिया। एम्बार अन्दर गया। आचार्यजी वैसे ही बैठे रहे।
"गुरुजी!'' एम्बार ने कहा।
आचार्यजी ने सिर उठाया। एम्बार को देखा। वह डरकर सिर झुकाये रहा। मुँह मलिन-सा हो गया था।
"क्या है, एम्बार?" आचार्यजी ने पूछा। "मन्त्री नागिदेवण्णाजी अब थोड़ी ही देर में यहाँ पधारनेवाले हैं।" "अच्छा ।" "गुरुजी, वही...वह यात्री...."
166 :: पट्टमहादेवी शान्तल्ला : भाग तीन