________________
चल दिया।
मण्डप सूना पड़ा था। थोड़ी देर खड़े रहकर इधर- उधर ताक झाँककर एम्बार ने लौट जाना चाहा, वह मुड़ा।
सामने अचान! वह भी हतप्रभा एक ने दूसरे को देखा। उस दृष्टि में चिन्ता, दुःख और एक-दूसरे के प्रति शंका थी।
"यह क्या अच्चान! पाकशाला छोड़कर इस वक्त तुम यहाँ कैसे?"
एक ने दूसरे से सवाल किया। मगर किसी ने किसी को कोई जवाब नहीं दिया। एक-दूसरे को नये-से लग रहे थे। दोनों के मन असहज थे। दोनों जानते थे कि मन में कुछ बाधा है। इसका क्या कारण था सो तो दोनों को मालूम नहीं हो रहा था। दोनों कुछ देर मौन रहे आये।
अच्चान एम्बार से पूछ बैठा. "एम्बार, आज यह क्यों ऐसा हआ?"
"हाँ, आज, क्यों ऐसा हुआ?' एम्बार के भी मन में वही सवाल उठा था। मगर जवाब नहीं मिल रहा था। इसी सवाल को दुहराता हुआ एम्बार आगे बढ़ा। फिर एक बार उस जगह को देखा।
"अच्चान, गुरुजी पूछेगे तो क्या कहेंगे?" "क्या पूछेगे?" "वहीं, उस यात्री के बारे में।"
"अभी नहीं आया? शायद आ जाय। कहीं शौच आदि के लिए गया होगा। वैसे ही कहीं नहा-धोकर सम्भवतः आएगा धीरे-धीरे।"
"आएगा तो?" "और क्या?" "अगर वह नहीं आया तो...?"
"हाँ, अगर नहीं लौटा तो?" अच्चान के मन में भी शंका थी। एम्बार के इस प्रश्न ने उसके दृढ़ निश्चय को हिला डाला।
"हाँ, न आए तो? गुरुजी पूछेगे तो क्या कहेंगे?" दोनों के अन्तरंग में वहीं सवाल था। दोनों सोचते रहे। उन्हें अपनी कोई गलती मालूम नहीं पड़ी।
मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा होता है। वह कभी अपनी गलती को नहीं पहचान पाता। पहचानने पर भी स्वीकार नहीं करता। स्वीकार करने पर भी दूसरों के सामने मानता नहीं।
___सोचते हुए दोगों आगे बढ़े । पाकशाला में पहुँचे। चूल की अधजली लकड़ियाँ बुझने को थीं। अच्थान का ध्यान उस ओर गया। चूल्हे के पास जा बैठा, फिर लूके जोड़कर जलाने लगा। दाल कभी की उबल-उबलकर थम गयी थी, नीचे से गरमी लगते ही फिर उबलने लगी।
164 :: पट्टपहादेवी शान्तन्ना : भाग तीन