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एम्बार इसे उक्त क्रम से देने से चूक रहा था। एक के बदले दूसरा दे देता। इसे देख आचार्य चकित हो रहे थे।
एक बार, दो बार, चार बार देखा, आखिर आचार्यजी ने पूछ ही लिया "एम्बार, तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न?" वैसे पूजा करते वक्त वे कभी बातचीत नहीं करते थे।
"ठीक है।" कहकर एम्बार कुछ चेत गया। अब आगे की पूजा-विधि यथाक्रम चली। एम्बार का हाथ रोज की तरह फुर्तीला नहीं रहा। हाथों पर उसका वश जाता रहा, यत्नपूर्वक कार्य मुश्किल से चल रहा था। आचार्य को लगा कि रोज की तरह की सरलता, सहजता उसके काम में नहीं है।
आचार्यजी का अन्तरंग कह रहा था कि दोनों शिष्य प्रकृत और सहज नहीं हैं। पता नहीं क्यों, दोनों में स्थिरता नहीं दिखती। पूजा की समाप्ति के बाद ही पूछा जाएगा, सोचकर आचार्यजी पूजा में लग गये।
वेदोक्त पूजा-विधान के समाप्त होने पर आचार्यजी रोज एकाध प्रहर तक एकान्त-चिन्तन किया करते थे। उस समय एम्बार को भी वहाँ रहने की अनुमति नहीं थी। एकान्त-चिन्तन के बाद वे बहिर्मुख होते और बाहर आकर दर्शन देते।
इसके बाद वे अपने दैनिक अन्यान्य कार्यों में लगते।
प्रात:कालीन कृत्यों से निपटकर बाहर आने तक वे किसी से बोलते-चालते नहीं थे। केवल आज ही बीच-बीच में बोलते रहे 1 बोलना पड़ा था। इस कार्य का प्रभाव उन पर भी हुआ था। उनके अन्तरंग में यह विचार आ ही जाता था कि आज ऐसा क्यों हुआ। इससे उनकी पूजा में बाधा न होने पर भी उन्हें रोज की तरह की तृप्ति नहीं थी।
पूजा समाप्त कर दे एकान्त-चिन्तन करने बैठे, तो एम्बार बाहर आ गया।
इधर अच्चान पकाने के लिए चूल्हे पर बरतन चढ़ा, बैठा हुआ एम्बार की प्रतीक्षा कर रहा था। आज की इस असंगति का कारण जानने के लिए वह विकल हो रहा था। वक्त बीतने के साथ-साथ उसकी विकलता बढ़ती जाती थी।
एम्बार खुद अपने बारे में सोचता हुआ बाहर निकला था। वह इधर-उधर देखे बिना किसी गहरी चिन्ता में डूबा हुआ था-यही अच्चान को लगा1 अच्चान ने कभी एम्बार को इस तरह चिन्तामग्न नहीं देखा था। खुद एम्बार को ही यों चिन्तामान होने के बारे में शंका हो रही थी।
सिर झुकाकर जो बाहर आया, तो वह सीधा उसी मण्डप में गया जहाँ रात को सोये थे। वहाँ अच्वान जो था उसकी ओर उसका ध्यान ही नहीं गया। उसकी उसे कल्पना तक नहीं थी कि वह वहाँ होगा। क्या करना, क्या न करना-यह कुछ भी उसको समझ में नहीं आ रहा था, हतोत्साहित होकर अच्चान एम्बार के पीछे
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 163