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"कुछ नहीं, पानी कन्धे पर पड़ने के बदले आज कान में गिर गया। बेचारे पानी को क्या मालूम कि कान में नहीं पड़ना चाहिए।"
लोटा हाथ में लिये अच्चान फक पड़ गया। ज्यों-का-त्यों वह खड़ा रहा।
"क्यों ऐसे खड़ा हो गया, क्या अभी पानी कम गरम है?" आचार्य ने पूछा।
अच्चान ने बड़ा उठाया, कड़ाही में ठण्डा पानी उँडेला। पानी को अपेक्षित गर्म पाकर घड़ा नीचे रख लोटे में पानी भरने लगा।
आचार्यजी ने यह सब देखा। सोचा आज इसे यह क्या हो गया? गरमगरम पानी पड़ने पर लगातार ऐसा पानी पड़ता रहे तो ठीक होता है, विलम्ब होने के कारण आचार्यजी के शरीर में कम्पन पैदा हो गया। अच्वान ने सुखोष्ण पानी आचार्य के शरीर पर डाला।
"अब ठीक है?" उसके मुंह से निकला।
"ठीक." अब आचार्य स्नान के लिए तैयार हुए। स्नान आदि के बाद मौन होकर अपनी सन्ध्या-पूजा आदि के लिए अपनाती नाले गो!
परन्तु अच्वान वैसे ही विचलित हो गया था। उनके मन में यही चिन्ता हो रही थी कि आज के काम ऐसे उल्टे-सीधे हो क्यों रहे हैं? वह एक-एककर सभी कार्यों पर विचार करने लगा। मैंने कोई गलती तो नहीं की? कान में पानी क्यों पड़ गया? आज पानी की स्थिति मुझे क्यों मालूम नहीं पड़ी? खौलता हुआ पानी डाल दिया न? यह कैसा पापी हाथ है!..
सदा रसोई के गरम बरतनों के साथ, आग से खेलनेवाले इन हाथों को शायद गरमी का पता न चले, लेकिन आचार्यजी के लिए नहलानेवाले पानी के विषय में तो काफी परिचित हाथ थे। आज कैसे धोखा खा गये! यह कभी हल न होनेवाली समस्या-सी हो गयी थी। इसलिए उसने सोचा कि बाद को इस सम्बन्ध में एम्बार से मालूम करेगा। इससे उसके मन को कुछ सान्त्वना मिली। वह पाकशाला को ओर चला गया।
इधर एम्बार अपने काम में लगा हुआ था फिर भी उसका मन यात्री की और लगा था। देरी से जगने पर उसे खुद आश्चर्य-सा लग रहा था। मदिरा पीकर सोये पड़े की तरह घोड़ा बेचकर सो गया। ऐसा क्यों हुआ? देरी से सोया, सच है। वह भी तो देरी से सोया, वह भी पद-यात्रा से थका था न? वह कैसे जल्दी जग गया? या सोया ही नहीं ? मुझे ही ऐसी नींद लग गयी? तो चलते-चलते थककर आये हुए उसको नींद का न आना सम्भव है? शायद हो सकता है कि जैसा अच्चान ने कहा, कहीं शौच-वौच के लिए गया हो। फिर भी जागने पर एक बार दिख जाता तो अच्छा था।
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 167