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इस तरह चिन्ता कई धाराओं में दिमाग में बहने लगी। वह अपना कार्य यन्त्रवत् करता रहा।
पूरब को ओर मुँह कर बैठने योग्य दीवार से सटाकर एक पीढ़ा लगाया। उसपर कृष्णाजिन और ऊपर से एक पटसन का वस्त्र बिछाया। अर्ध्य-पाद्य आदि के लिए शुद्धोदक भरकर तैयार रखा। तरह-तरह के रंग-बिरंगे पुष्प पसत में भर रखे। पूजा को अन्य सब सामग्री सजाकर रखी। निमाल्य निकालकर रखा। यह सारा काम यन्त्रवत् चल रहा था। मगर उसका मन उस यात्री की ओर ही लगा था। अचानक उसे सोने में कुछ दर्द-सा लगा, हाथ में साफ करने के लिए पकड़ी हुई घण्टी फिसलकर नीचे गिर गयो, आवाज हुई; उस आवाज में एक चीत्कार भरा हुआ-सा लगा। अप्रतिभ होकर इधर-उधर झोंका। घण्टी को उठाकर ऊपर रखा; एकदम उठा और वहाँ गया जहाँ वह यात्री सोया था।
वहाँ आकर चारों ओर एम्बार ने ढूंढा। कोने-कोने में देखा, स्तम्भों पर, आले पर, सब जाह हूँ डाला , आखिर एक लम्बी साँस ली। छेनी, हथौड़ी-ये ही तो उस यात्री के थैले में थे; जब उसकी यह थैली ही यहाँ नहीं है, तो वह कहीं खिसक गया होगा-यही उसने सोचा। यह बात सच निकली तो? गुरुजी ने कहा था न कि 'वह व्यक्ति प्रकृति से बहुत सूक्ष्ममति है: बड़े ध्यान से उसकी देखरेख करना।' अब गुरुजी पूछेगे तो उन्हें क्या उत्तर दूंगा-यह सवाल उसे कॉट की तरह गड़ रहा था।
अच्चान ने एक बात कही थी-सो उसे याद आयी। 'उस यात्री के पास केवल एक थैला ही तो था। उसकी सारी सम्पत्ति, कपड़े-लत्ते सभी उसी में होंगे। शौच आदि के लिए बाहर जाते हुए उसे भी साथ ले गया होगा, वैसे ही वहीं कहीं स्नान आदि से निबटकर लौटने की बात सोची होगी। इसलिए उसने अपना थैला भी साथ ले लिया होगा।' अच्चान की इस बात की याद ने उसे कुछ तसल्ली दी। इसलिए वह वहाँ से लौट आया, वहाँ जहाँ पूजा-पाठ की व्यवस्था करनी थी।
एम्बार के लौटने के पहले ही आचार्यजी आकर अपने लिए तैयार आसन पर बैठ गये थे और तिलक धारण करने की तैयारी कर रहे थे। इसे देख एम्बार को कुछ खटका, उसने सोचा, शायद न जाता तो अच्छा था। तिलक धारण के बाद आचार्यजी ने प्रातःसन्ध्या समाप्त की। अब षोडशोपचार-पूजा के क्रम का आरम्भ करना था। एक-एक वस्तु को पूजा के लिए तैयार रख, समय-समय जिसे जब देना चाहिए, उसे आचार्यजी के हाथ में देने का काम एम्बार का था। घण्टा, शंख, कलशोदक, दूध, दही, मधुपर्क, शुद्धोदक, धूप-दीप-फल-पुष्प आदि को क्रमबद्ध रीति से आचार्य के हाथ में पहुँचाना था। परन्तु, आज पता नहीं क्यों
162 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन