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"आचार्य की सेवा आनन्द देती है, थकावट नहीं।" "यह आपकी सहृदयता है।" "यह केवल सहृदयसा नहीं, वास्तविकता भी है।" "कुछ जरूरी काम है?"
"सलिए आयः । असारे या पुरसव मना-जा जी रहा है। राजकुमारी की अस्वस्थता के कारण सम्पूर्ण राज्य चिन्तित हो गया था न। आपकी कृपा से वह स्वस्थ हो गयी। इसलिए अपने संकट का निवारण हो जाने के कारण यादवपुर की जनता अपने-अपने मत-सम्प्रदायों के अनुसार अपने-अपने घरों में विशेष पूजाअर्चना कर रही है और उत्सव मना रही है। कल रात को इस बात का निर्णय हुआ। स्थानीय प्रमुख पौरों ने मिलकर इस बात का निर्णय किया; उसी के अनुसार घरघर में खबर पहुँचा दी गयी है। सारे शहर में हर्ष का पारावार उमड़ पड़ा है। इसके साथ-साथ आज शाम को राजमहल के बाहरी प्रांगण में एक सार्वजनिक सभा का भी आयोजन किया गया है। आचार्यजी आज शाम को वहाँ पधारकर यादवपुर के पौरों के लिए अनुग्रह भाषण दें।"
"आण्डयन भगवान् की सेवा; चलेंगे।"
"एक बात और है। आज अपराल के बाद आचार्यजी को समस्त राजमर्यादाओं के साथ यादवपुरी को प्रमुख राजवीथियों में ले जाने का भी निर्णय हुआ है। इस बात को भी चरों के द्वारा इर्दगिर्द के दस-बीस गाँवों में भी प्रसारित कराया गया है। इस सबकी व्यवस्था हो चुकी?"
"हमें बसाये बिना हो यह सारी व्यवस्था हो चुकी?"
"इसके लिए आपकी सलाह की आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई। यह सारी व्यवस्था जनता में उमड़ते हुए उत्साह का प्रतीक है। जनता के इस उत्साह को रोकना सम्भव नहीं था।"
"फिर भी..." "क्या इसमें कोई बाधा है ?" "बाधा तो नहीं। पता नहीं, क्यों आज मन कुछ उद्विग्न-सा है।" आचार्य के मुँह से ऐसी बात सुनकर नागिदेवण्णा कुछ अवाक रह गये।
आचार्य के मन को सन्ताप? यह कैसे सम्भव है? सो भी आचार्यजी जब स्वयं कह रहे हैं, इसमें शंका ही कैसे हो सकती है? परन्तु उनकी उस उद्विग्नता · का स्वरूप क्या है.? उसका मूल हेतु क्या है ? नागिदेवपणा का मन भी द्वन्द्वमेय
हो उठा। __.. "इस तरह की उद्विग्नता आचार्य के मन में कैसे उत्पन्न हो गयो? कुछ प्रकाश डालें."
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग नीन :: 169