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कर रखना, उनके शौच आदि से निवृत्त होने के बाद स्नान आदि कराकर एम्बार को सौंप देना, यह उच्चान का प्रातःकालीन प्रथम कर्तव्य था।
एम्बार को सौंपने के बाद अचान पाकमाना की सराप निश्चिन्त होकर अपने काम पर चला जाता। परन्तु पहले आचार्यजी की सेवा समाप्त होने तक उसमें एक तरह की बेचैनी रहा करती थी। प्रतिदिन वहीं दृश्य उसकी आँखों के सामने गुजर जाता। पर वह वर्षों की पुरानी बात होने पर भी रोज-रोज नयी ही दिखती थी।
पहले एक बार कावेरी नदी के तीर पर गरम हुए बालू पर महर्षि गोष्टिपूर्ण खड़े थे। उपवास से कृश आचार्य ने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया था। प्रणाम करने के निमित्त आचार्य ने अपने शरीर को गरम रेत पर फैला दिया था। गोष्टिपूर्ण जानते थे कि रेत सप रहा है, फिर भी वे चुप रहे। प्रणाम करनेवाले आचार्य को आशीर्वाद नहीं दिया। आचार्य के पास उनका प्रिय शिष्य अच्चान था। वह स्थिति को देखकर कौंप गया। इस गरम रेत में तपकर कहीं आचार्य भस्म न हो जाएँ, यही सोच वह छटपटा गया था। इस वजह से उसे गुस्सा आ गया। उसे यह भी मालूम था कि गोष्ठिपूर्ण उसके गुरु के गुरु, उसके लिए परमगुरु थे। परन्तु उसमें वह गौरव-भावना जलकर नष्ट हो चुकी थी। लाल-लाल आँखों से उस परम गुरु की ओर देखा। कहा, "आपके पाँवों में पादुकाएँ हैं। शायद इसलिए तपते रेत की गरमी का पता नहीं लगा होगा। ये गुरु हैं ? गुरु? निर्दयी!" एकदम कह गया। न आव देखा न ताव। तब हंसते हुए गोष्ठिपूर्ण आचार्य को उठाकर अच्चान को सौंपते हुए बोले, "तुम जैसे एक व्यक्ति को हमें जरूरत थी, इस निष्कपट शुद्ध हृदय के अपने शिष्य की देखभाल करने के लिए। अब हम निश्चिन्त हैं। आज से आजीवन हमारे प्रिय शिष्य रामानुज की रक्षा का उत्तरदायित्व तुम्हारा।" उस दिन व उस दृश्य को वह कभी भूल नहीं सका था।
यह क्या कोई साधारण जिम्मेदारी है?
उसे यही चिन्ता रहा करती कि स्नान कराते वक्त पानी कम गरम है या ज्यादा? स्नान करने योग्य समोष्ण और शरीर को सुखद लगे-इसे वह जानता था, उसे अचान के सिवा दूसरा नहीं जानता था। पानी की इस स्थिति को परखने में वह सदा सतर्क रहा करता। तपे बालू पर का वह दृश्य तुरन्त उसकी आँखों के सामने आ जाता। आचार्यश्री की रक्षा का उत्तरदायित्व बहुत भारी था-इसे वह जानता था, फिर भी इस दायित्व को वह अपने लिए एक अनुग्रह ही मानता था। इस उत्तरदायित्व को निभाने की सदा तत्परता उसमें रहा करती।
उसने तुरन्त उठकर कड़ाही के अन्दर हाथ डालकर देखा, पानी बहुत गरम लगा। हाथ खींच लिया और चूल्हे से लूके निकाले। अभी भी एम्बार का पता नहीं!
पट्टमहादेवी शान्तला ; भाग तीत :; 159