________________
निष्कल्मष पवित्र हृदय - आदि का स्पष्ट चित्र पथिक के मानस में अंकित हो
गया।
" कैसा तेजपूर्ण व्यक्तित्व! कैसा महान् जीवन! कैसी अद्भुत साधना ! साधना में कैसी अपरिमित निष्ठा!" यह सब सुनकर उसका दिल भर आया ।
" जन्म लेना हो तो ऐसा जन्म हो, जीना हो तो ऐसा जीवन जिएँ। "
उसे
लगा।
परन्तु ?
आफ्ने की महिवन का किया उसकी आँखों के सामने चित्रपट की तरह एकएक कर गुजरने लगा। उसे आत्म-निरीक्षण-सा लगा। दषेण दृश्य नहीं, दा अलगअलग व्यक्तित्व से लगे। दुनिया के द्वन्द्व के विषय में एक नयी सूझ-सी उसके मन में उत्पन्न हो गयी। इसी धुन में उसका 'हूँ-हाँ' कहना बन्द - सा हो गया। क्योंकि उसका मन कुछ और ही सोचता हुआ अन्यत्र ही विचरण करने लगा था । एम्बार समझ गया। पूछा, "क्यों मन नहीं लग रहा है ?"
एम्बार के इस सवाल ने पान्थ को जगा दिया। उसने कहा, "नहीं, ऐसी बात नहीं है।" परन्तु वह सत्य - सा उसे नहीं लग रहा था। इस बात को कहते वक्त उसकी ध्वनि में कुछ घबराहट सी थी। एम्बार यह समझ गया।
उसे कुछ सूझा। बेचारे, पता नहीं कितने थके होंगे, कितनी दूर से चलकर आये हैं। आराम करने न देकर अपने उत्साह में उन्हें कष्ट देना उचित नहीं । अब आराम करने दें। कल रहेंगे न ? बाकी बातें तब बता देंगे। यो एम्बार ने सोचा। अन्त में कहा, " अब आपके लिए आराम की जरूरत है, सोइए। "
44
"आराम ? सो भी मुझे ?"
"क्यों, ऐसा क्यों कहते हैं ?"
* इस जन्म में सम्भव नहीं ।"
" इतना निराश होने की जरूरत नहीं। कल आप स्वयं देखेंगे। हमारे गुरुजी कल कैसा जादू करेंगे। तब आप ही समझेंगे। कल आचार्यजी के दाम्पत्य-जीवन से सम्बन्धित ऐसा किस्सा सुनाऊँगा जिसने उन्हें अत्यन्त दुःख का शिकार बनाया था। अब आप जाकर शयन करें।"
यात्री के मुँह से कोई बात नहीं निकली। उसके मौन को ही सम्मति का सूचक मानकर एम्बार ने आँख बन्द कर हाथ जोड़कर प्रणाम किया और दरी पर करवट लेकर सो गया। उसे जल्दी नींद आ गयी।
ऐसे महापुरुष को भी अत्यन्त दुःखी बनाया इस कमबख्त दाम्पत्य जीवन
के दिमाग में ये विचार और एम्बार की और भी अनेक बातों के
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन 157
ने ?
यात्री