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लाये थे, उसे आचार्यजी को समर्पित किया।
उनमें से कुछ लोगों का व्यवहार तो आचार्यजी को बनावटी लगा। इस बात से वे अपरिचित तो नहीं थे कि वे लोग मौका पाकर काम साध लेने की प्रवृत्ति रखनेवाले हैं। फिर भी उन सभी आगतों को सन्तुष्ट कर जल्दी ही उन्हें विदा कर दिया। राजमहल के अधिकारी, सिपाही, रक्षक-दल, पालकीवाहक, चामरधारी, मशालची आदि सभी को विदा किया। तब तक सूर्यास्त भी हो गया था।
आचार्यजी सचमुच एकान्त चाहते थे। इसलिए सबके चले जाने के बाद आनाजी रे सपने "हरने के लिए बने विशिष्ट गोट वाले मण्डप में जाने के लिए कदम उठाया ही था कि उनके बगल में से सामने आ एक मध्यम आयु के व्यक्ति ने हाथ जोड़ प्रणाम किया। आचार्यजी ने अभय हस्त दिखाकर एक बार मुस्कुरा दिया। बाद को दो-तीन सीढ़ी चढ़ वहीं रुक गये। मुड़कर उस प्रणाम करनेवाले की ओर देखा। वह ज्यों-का-त्यों खड़ा था। सीढ़ियों से उतरकर फिर आचार्यजी उसके पास आये। क्षणभर के लिए उसकी ओर देखा।
उस मण्डप के एक कोने में टिमटिमाती ढिबरी का प्रकाश उस व्यक्ति के चेहरे पर पड़ा।
आचार्यजी ने पूछा, 'आप कौन हैं?" "मैं इस तरह के गौरवार्थक 'आप' सम्बोधन के योग्य नहीं।"
"आप की बात ही आपकी योग्यता की साक्षी है। अच्छा, बताइए, आप कौन हैं?"
"मैं एक बटोही।
"हम सब बटोही हैं। परमात्मा के आदेश के अनुसार उस देश से कूच कर इस भूलोक में आये हैं।"
"ज्ञानी जनों के मुंह से निकलनेवाली बात का हम मूर्ख क्या उत्तर दे सकते हैं?"
"तो ज्ञानी और मूखं-इनमें अन्तर क्या है सो आप बता सकेंगे?" "मैं अज्ञ हूँ। इस तरह की जिज्ञासा करने की शक्ति मुझमें नहीं है।"
"मनुष्य को पीछे हटना नहीं चाहिए। पीछे हटना दुर्बलता का द्योतक है। फिसड्डीपने से कुछ भी नहीं सधता।"
"साधने के लिए कुछ हो, साधने की चाह हो-ऐसे लोगों के लिए वह आवश्यक है। परन्तु मुझ-जैसे के लिए..."
"सभी मानव समान हैं। हम, आप, वह इस तरह का भेदभाव उचित नहीं। परमात्मा की दृष्टि में सब समान हैं। उनकी इस सृष्टि में इस भूमि पर रहनेवाली समस्त जोवराशि को कर्तव्य निरत होना चाहिए। जो कर्तव्यविमुख
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 149