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उधर प्रमुख पौर, गण्यमान्य व्यक्ति, धनी, विद्वान् आदि आचार्यजी के दर्शनों के लिए और उनसे सम्पर्क कर बातचीत करने के लिए क्रुतूहली होकर, कोई दूर की आशा-आकांक्षाओं को लेकर नरसिंह मन्दिर के अहाते में एकत्रित हो गये थे।
राज-प्रासाद की भिक्षा के बाद थोड़ा आराम कर साँझ के समय राजमर्यादाओं के साथ पालकी में बैठकर निकले आचार्यजी।
किसी तरह के पूर्व-आयोजन के बिना ही आचार्यजी को लोगों से महान गौरवपूर्ण स्वागत प्राप्त हुआ। इस तरह हो सकने की कल्पना भी शायद आचार्य के मन में नहीं हुई होगी। घर-घर के सामने अत्यन्त मनोहर अल्पनाएँ बनायी गयी थीं। बीथियों को भी सजाया और सुन्दर बनाया गया था ; समय और सहूलियत होती तो शायद जगह-जगह छप्पर और शामियाने भी बन जाते, बन्दनवारों का तो पूछना ही क्या था।
लोगों के हर्षोदगार और उनके द्वारा प्रदर्शित श्रद्धा-भक्ति आदि देखकर आचार्यजी का हृदय भर आया। जीवन में पहली बार इस तरह के अपरिमित आनन्द के वशीभूत होने के कारण उनकी दशा विचित्र हो गयी। उस उमड़ते हुए आनन्द से उनकी आँखें भर आर्यो। हाथ जोड़कर आँखें बन्द किये वे बैठ गये थे; आनन्दाश्रुओं के प्रवाह को रोकने में असमर्थ होने के कारण उन्होंने आँखें तक नहीं खोली। पलकें बन्द!
नगर से बाहर कुछ दूर हटकर मन्दिर बना था। इससे आचार्यजी की कुछ अच्छा लगा, क्योंकि वह स्थान उनके एकान्त-सुख के लिए अच्छा था। वे समझते थे कि वहाँ पहुँचने पर इस महदानन्द के दबाव से छुट्टी पा सकेंगे। एकान्त में संयम को साधना सम्भव है-इसे एकान्तवासी संन्यासियों ने साधना कर दर्शाया है। परन्तु उस दिन जितनी जल्दी एकान्त चिन्तन-रत होना चाहते थे, वह सम्भव नहीं हो पाया, वहाँ भी।
राजमार्ग से आते हुए जिस जन-समुद्र को देखा, उसमें उनका निर्व्याज-प्रेम और श्रद्धा का अनुभव आचार्य ने किया, जो मन्दिर में एकत्रित जन-स्तोम में नहीं है-यह उन्हें प्रतीत हो रहा था। पालकी से उतरते ही लोगों के झुण्ड-के-झुण्ड
आकर घेरने लगे। जितने लोग उतने ही निवेदन। हम अपना सर्वस्व आचार्यजी के लिए समर्पित करेंगे।...हमारे प्रभु विशेष प्रकार के तारतम्य की परख करने में बड़े निष्णात हैं, उनकी रुचि का पता पाना आसान नहीं। लेकिन आपका आगमन होते ही आपके प्रति इतनी श्रद्धा और भक्ति उनकी हो गयी तो मानना ही चाहिए कि आप दैवांश सम्भूत महापुरुष हैं। इसलिए अब हमारे लिए आपका आश्रय राज्याश्रय ही के समान है। यों अनेक तरह की बातें कहते हुए वे जो कुछ भेंट
14H :: पट्टपहादेवी शान्तला : भाग तीन