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"देखनेवाली आँख है। वह स्वभावतः चंचल है। इसके अलावा देखनेवाले की रुचि भी व्यक्तिगत चांचल्य का कारण बनती है। परन्तु हाथ काम करता है। यदि वह स्थिर न रहकर व्यक्तिगत चपलता के वशीभूत होकर चंचल हो जाय तो छेनी का काम सम्भव ही नहीं होता । कलासाधक को स्थिरता की आवश्यकता हैं, एकाग्रता की जरूरत है। निर्भयता भी चाहिए। परन्तु कला का आस्वादन करनेवाले प्रेक्षक कभी चंचल हो भी जाएँ तो चलता है। क्योंकि ऐसी चंचलता से उनके कलास्वादन की रुचि हो तो बिगड़ेगी। कला को कोई नुकसान नहीं पहुँचेगा। कलाकार का हाथ भय से काँपने लग जाय तो सचमुच कला बिगड़ जाती है।"
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"कला के विषय में आपने अनेक सिद्धान्तो को अनुभव द्वारा समझा है ऐसा लगता है।"
"सिद्धान्त कुछ भी रहे हों, अनुभव मात्र बड़ा कटु है । "
उस पान्थ ने बात तो कह दी। फिर तुरन्त चुप हो गया। उसकी आँखें एकदम भर आयीं। उसे वह रोक नहीं सका। वैसे ही उसने सिर झुका लिया। आचार्य ने उसकी ओर देखा । उनको लगा कि अब अधिक छेड़ने पर उसके अन्तरंग की वह कटुता ज्वालामुखी की तरह फूट सकती हैं इसलिए उन्होंने बात का रुख ही बदल दिया।
"यों तो आप पथिक हैं। आज रात चाहें तो आप यहाँ बिता सकते हैं। हमारे शिष्य आपकी देखभाल कर लेंगे। कोई संकट आपको बाधा दे रहा है। उसे शान्ति चाहिए। कल बात क्या है सो जानकर उस पर विचार करेंगे। आइए, ऊपर आइए।" कहकर आचार्य सीढ़ियों पर चढ़े और परदे के पास पहुँचे।
पान्थ भी यन्त्रवत् उनके पीछे चला आया ।
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परदे के पास खड़े होकर आचार्यजी ने एक तरफ हाथ से दिखाकर कहा, 'आप यहाँ यात्रा की थकावट मिटाइए। शीघ्र ही हम शिष्य को आपके पास भेजेंगे।" कहकर वे परदे के पीछे आड़ में हो गये।
पान्थ बगल के मण्डप में जाकर अपने कन्धे पर के थैले को उतारकर एक खम्भे के सहारे पैर पसारकर बैठ गया । अन्दर आकर आचार्य ने अपने शिष्यों को बुलाकर धीरे से कहा
"एम्बार, अच्चान! सुनो, बगलवाले मण्डप में विश्राम करनेवाले एक महाशिल्पी हैं। कलाकार हैं। पता नहीं, शायद किसी दुःख-दर्द के कारण इस तरह भटक रहे हैं। बड़ी तत्परता से उनकी देखभाल करना। उनके दुःख-दर्द के कारण जानने के लिए उन्हें छेड़ना नहीं। बाद में उसकी कैसी प्रतिक्रिया होगी-सो कहा नहीं जा सकता। एक तरह से हमने उनके मन को पहचान लिया है। यदि हमारी
152 :: पट्टमहादेवी शान्तला भाग तीन