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'ठीक है, चलिए।" दोनों पाकशाला की ओर चल दिये। अवान ने वहाँ पीड़ा लगाकर केले का पत्ता बिछा, पानी वगैरह तैयार रखा
था। नवागन्तुक जाकर पीछे पर बैठ गया। एम्बार वहीं कुछ दूर पर एक प्रस्तरस्तम्भ
से टिककर बैठ गया।
अच्चान ने परोसते हुए कहा, "यथोचित भोजन कीजिए। पता नहीं कितनी दूर से चलकर आये हैं, थके होंगे।"
" रोज घूमनेवालों के लिए थकावट कहाँ से ?"
"तो क्या घूमते रहना ही आपकी वृत्ति है ?"
"नहीं, फिर भी घूमता रहता हूँ। घूमते रहना है। फिलहाल तो एक पान्ह
भोजन प्रारम्भ हो गया था। अच्चान ने पूछा, "आप कहाँ के निवासी हैं ?" पान्थ के हाथ का कौर वहीं रुक गया, मुँह तक नहीं गया। उसने सवाल करनेवाले अच्छान की ओर एक विशेष दृष्टि से देखा ।
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'क्यों, क्या हुआ ?" अच्चान ने घबराकर पूछा।
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"कुछ नहीं, कोई बात याद आ गयी। इतना ही।" उसने कौर को मुँह में
"स्मृति कड़वी नहीं है न?"
"उसका स्वाद दूसरे को मालूम ही नहीं हो सकता।" कड़ा जवाब दिया यात्री ने। जल्दी-जल्दी, पत्तल पर जो परोसा था उसे खाकर समाप्त किया।
तब अचान को गुरुजी की बात याद आ गयी। उसके मन में शंका होने लगी कि उसने जो बात कही वह ठीक थी या नहीं।
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'क्या परोसूँ? क्या चाहिए? और थोड़ा परोयूँ ? संकोच न करें, भोजन स्वादिष्ट है या नहीं ? नमक मिर्च सब बराबर लगा है या नहीं ? मिर्च कुछ अधिक हो तो घी देने से ठीक हो जाएगा।" आदि-आदि समयानुकूल औपचारिक बातें करते, खाने पर अधिक जोर न देकर युक्ति से भरपेट खिलाने की कला में अच्चान बहुत निष्णात था। परन्तु अब वह एकदम मूर्ख-सा खड़ा रह गया था।
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वहीं बैठकर एम्बार यह सब देख रहा था, पत्तल को खाली देख कहा"देखो, अच्चान पत्तल खाली है, उन्हें जो चाहिए उसे पूछकर परोसो ।" एम्बार की इस बात ने उसे सहज स्थिति में ला दिया।
भोजनोपरान्त तीनों उसी मण्डप में आये जहाँ पान्थ का नाममात्र का सामान था और बैठ गये। आचार्य के दोनों शिष्य उसके बारे में जानने को बहुत उत्सुक थे। परन्तु इस बात का डर भी बना हुआ था कि उसे जानने के प्रयत्न में कोई अनहोनी
पट्टमहादेवी शान्तला भाग तीन
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