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जगदल सोमनाथ पण्डित के बचे के स्वस्थ होने की खबर उनके घर की इयोढ़ी से बाहर पहुंची थी। वह भी उतना ही महिमामय विषय था तो भी उस घटना के प्रति लोगों का उतना ध्यान नह: ।मा था। पतिकी तो सारी पोयसल राज्य के प्रसिद्ध वैद्य थे। उन्हीं की चिकित्सा भी चल रही थी। किसी कार्यकारण संयोग से यह सब हुआ होगा-यों सोचनेवालों की भी कमी न थी।
__ 'सब के यहाँ बच्चे होते हैं, बीमार भी होते हैं, अच्छे भी हो जाते हैं, इसमें कौन-सी खास बात है' कितने ही लोग ऐसा भी सोच रहे थे। परन्तु...
जब राजकुमारी की बात उठती है तो यह साधारण विषय नहीं होता। वह तो घर-घर की बात बन जाती है। इसीलिए सबमें कुतूहल और आसक्ति पैदा हो जाती है। अन्यत्र सम्भव न हो सकनेवाला कोई मानवातीत विशेष कार्य शायद झोता होगा-ऐसा भी भ्रम लोगों में रहा होगा- नहीं तो आम लोगों में ऐसी आसक्ति क्यों हो!
सबके घरों में विवाह होते हैं। विवाह के बाद गर्भधारण भी होता है। बच्चे जन्मते भी हैं। पास-पड़ोस के दो-चार लोगों को छोड़कर, अन्य कोई उस विषय में आसक्त नहीं होते। पास-पड़ोस के लोगों की आसक्ति भी केवल तात्कालिक हुआ करती है। परन्तु...
राज- परिवार में महारानी, रानी या अन्य कोई राजघराने की स्त्री गर्भवती होती है तो गर्भ धारण के समय से लेकर, बच्चे के जन्म होने तक लोग लगातार उत्सुक रहा करते हैं। खासकर स्त्रियों में हर कहीं चाहे किसी भी प्रसंग में, जब कभी कहीं दो-चार इकट्ठा होती हैं, तो यही बात चलती रहती है।
यह भी लोगों की कैसी प्रवृत्ति है!
'पदस्थ अधिकारी कोई व्यक्ति अच्छी तरह बात कहे तो लोग उसकी प्रशंसा करते हैं। उसी अच्छी बात को कोई साधारण व्यक्ति कहे तो उस पर कान भी नहीं देते। इसमें बातों का गुण और उसका महत्त्व प्रधान है या उसे कहनेवाला व्यक्ति प्रधान है? यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण हो उठता है। यह एक सार्वकालिक प्रश्न है, एक अनुत्तरित प्रश्न : पहले भी ऐसा ही रहा, आगे भी रहेगा। लोगों का स्वभाव ही ऐसा है। इसलिए वर्तमान रूप में यही मान लें कि ऐसा ही होता है।
चाहे किसी भी कारण से क्यों न हो, आमतौर पर यादवपुरी के लोगों का ध्यान आचार्य की ओर विशेष रूप से लगा था, यह निर्विवाद है।
चाहे जो हो, राजमहल से लौटते समय आचार्यजी को आँखभर देख आनन्दित होने के विचार से लोग रास्ते के दोनों ओर इकट्ठे हुए और मन्दहासयुक्त प्रणामों के साथ उनको देख और अपनी श्रद्धाभक्ति का प्रदर्शन करने के लिए, घर-घर के ओसारे, आँगन आदि में जुट गये थे।
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 147