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हो गये। हाथ जोड़े बैठे आचार्य को देख ने एक पाड़ हि
बिट्टिदेव में एकदम एक तरह का उत्साह हो आया। उन्होंने उठकर आचार्यजी के पास बैठी बेटी हरियला को गोद में लेकर कहा, "यह अब तक मेरी बेटी रही। आचार्यजी ने जैसा सुनाया-यह अब हरि की कृपा से रक्षित अम्बा है। इसलिए आगे इसे 'हरियध्वे' के नाम से पुकारेंगे। इस तूतन नामकरण के लिए यह शुभ मुहूर्त है: आचार्यजी इसे आशीष दें।" कहकर महाराज ने बच्ची को आचार्य के चरणों पर लिटा दिया।
शान्तलदेवी के मुंह पर एक 'पन्दहास खेल गया। आचार्यजी ने झुककर बच्ची को उठाकर अपनी गोद में बिठा लिया। बाद को उन्होंने कहा
"हरियचे, हरियो ! सच है बेटी! तुम हरियव्ये ही हो। पोय्सल राजवंश की यह हरियव्चे इस राज-घराने की प्रथम विष्णुभक्तिन होगी। आगे यह सिंह जैसे पराक्रमी का हाथ पकड़ मातृवंश एवं श्वसुर वंश दोनों की कीर्तिवर्धिनी बनेगी।" कहते हुए उसके सिर पर हाथ फेरते, राजदम्पती की ओर देखते हुए बताया-"हरि का अर्थ सिंह भी है।"
शान्तलदेवी ने बिट्टिदेव को देखा; बिट्टिदेव ने सचिव नागिदेवण्णा को और उसने अंगरक्षकों की ओर देखा। अंगरक्षक अंकणा ने आनर्तनशाला के महाद्वार के पास जाकर द्वारपाल से कुछ कहा। वह वहाँ से अभी लौटा ही था कि इतने में आनर्तनशाला में घण्टे की गूंज 'तैरने लगी।
इसे सुनकर सभी सभासद उठ खड़े हुए और हाथ जोड़े। वन्दिमागध रत्नखचित स्वर्णदण्डधारी हो महाद्वार के पास पहुँचे। सामाजिक और सभा के अन्य जन भी विदा हुए।
राज-परिवार के साथ आचार्य और उनके शिष्य एम्बार, नागिदेवपणा, श्रीपाल वैद्य, छोटे मरियाने दण्डनाथ, डाकरस दण्डनाथ, मंचि अरस, जगदल सोमनाथ पण्डित-जैसे प्रमुख लोग ही रह गये। आचार्यजी के लिए उस दिन की भिक्षा की व्यवस्था नहीं की गयी थी, इसी वजह से ये सब साथ ही ठहरे।
यादवपुरी में नवागत यतिराज रामानुज ने अपने अद्भुत चमत्कार से राजकुमारी के विचित्र रोग को एक ही दिन में अच्छा कर दिया। जो रोग महीनों को चिकित्सा के होते हुए भी तिलभर कम नहीं हुआ था, ऐसा रोग जिसे दूर करने के लिए बड़े-सेबड़े वैद्य भी कोशिश कर हार गये थे, उसी को एक ही दिन में, पलक झपकते ठीक
पट्टमहादेवो शान्तला : भाग तीन :: 145