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चले तो यहाँ की जनता, राज-परिवार और अधिकारी वर्ग आदि के उच्च सुसंस्कृत हृदयों में उस छलकते हुए मानव-प्रेम को देखा और पाया। यह उसी विश्वप्रेम का दूसरा पहलू है, जिसे हमने यहाँ प्रत्यक्ष देखा-समझा। विश्व का जैसे-जैसे विकास होता जाएगा, तैसे-तैसे मानव की व्यक्तिगत इच्छाएँ बृहत् रूप ग्रहण करती जाएंगी, और और बृहत् होती जाएंगी। इन बृहदाकारों के घर्षण में स्वार्थप्रवृत्ति के बढ़ने से मानव-कल्याण को भावना गौण हो जाती है। इससे मानव-प्रेम का वह शुद्ध स्वरूप मैला होता जाता है। क्रमश: यह मैल जमकर उस सम्पूर्ण मानव-प्रेम की भावना को नष्ट कर देता है; जनता धर्म से दूर हो जाती है, भगवान् पर विश्वास खोकर एक विचित्र तरह के प्रतिक्रियात्मक भाव के वशीभूत होकर प्रलय ही मचा देती है। यही आज तक के हमारे अनुभव से उपलब्ध अनुभूति है। परन्तु पोय्सल राज्य में प्रवेश करने के बाद हमें लग रहा है कि हम किसी एक नवीन संसार को ही देख रहे हैं। क्योंकि यहाँ यद्यपि अनेक भावनाओं के, अनेक मत-सम्प्रदायों के लोग रहते हैं, फिर भी 'जिओ और जीने दो' की नीति का अनुसरण करते हुए परस्पर सहयोग-पूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे हैं। वैयक्तिक मत सामाजिक जीवन में किसी तरह की बाधा न बनें, इसकी पर्याप्त सावधानी बरती जा रही है। इसी विशेषता के कारण इस राज्य में एक नवीन चेतना का विकास हुआ है जो परम श्रेयस्कर है। इसमें तिल-भर भी शंका नहीं। मैं इस महान दान से अत्यन्त सन्तुष्ट होकर ऐसी बात कह रहा हूँऐसा कोई न समझे। हमारे अन्तरतम में जो सत्य का दर्शन हुआ है, उसी को हमने स्पष्ट किया है। धर्म-विमुख मानव में धर्मश्रद्धा स्थापित करना, धर्म-स्वरूप के विषय में डांवाडोल मन को सद्लक्ष्य हेतु सुस्थिर करता-यही हमारा लक्ष्य है।"
आचार्यजी के प्रवचन की धारा धीर-गम्भीर रूप में प्रवाहित हो रही थी। मन की डाँवाडोल स्थिति की बात जब आचार्य श्री की वाणो में सुनी तो शान्तलदेवी ने एक बार बिट्टिदेव की ओर प्रश्नाकुल दृष्टि से देखा। वह दत्तचित्त होकर आचार्य को वाक्-सुधा का पान कर रहे थे। बिना किसी बाधा के आचार्य की बात आगे बढ़ी
"हमारे लक्ष्य की साधना की प्रमुख शर्त है मानव-प्रेम। वह प्रेम चाहे किसी रूप में प्राप्त हो. वह त्याज्य नहीं। इसीलिए महाराज द्वारा प्रदत्त यह दान हमें स्वीकार्य है।"
इतना कहकर आचार्य ने नागिदेवण्णा की ओर देखा और फिर एक दृष्टि सभासदों की ओर डालते हुए बोले. "नागिदेवण्णाजी ने हमारे जन्म-प्रदेश के चोलराज के विषय में सुनी सुनायी बातों के आधार पर जो बातें सुनायीं, वह सदभाव को उत्पन्न करने की एक रीति है। आज के मानव की रीति-नीतियों के जानकार,
पट्टमहदेनी शान्तला : भाग तीन :: 143