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समतल, तीन सौ गुण्ठा प्रदेश तथा इस निवेशनान्तर्गत जल-तटाक, निधिनिक्षेप, अक्षीण, आगामी सिद्ध और साध्य विष पाषाण आदि अष्टभोग तेजस्वाम्य को अपने हस्ताक्षर एवं राजमुद्रांकित कर श्रीमदाचार्य को और उनके पश्चात् उनकी इच्छा के अनुसार अविच्छिन्न परम्परागत होकर उस स्थान पर विराजमान शिष्यवर्ग को स्थायी रूप से स्वामित्वानुभव के लिए धारापूर्वक दत्त दान है, इसके अतिरिक्त मोय्सल राजकुमारी के विचित्र रोग का श्रीमदाचार्य के तपःप्रभाव से परिहार होने के कारण, राजपरिवार एवं वंशोन्नति के लिए श्रेष्ठ साहाय्य करने के उपलक्ष्य में प्रत्यक्षानुभव से देखा और समझा है; उस शुभानुभूति के इस सन्निवेश में -
श्रीमदाचार्य प्रणीत तत्त्वप्रसार के औचित्य को समझकर उस प्रसार के लिए सुविधा हो - एतदर्थ श्रीमदाचार्य के आश्रम निर्माण के लिए, दो सहस्र स्वर्ण मुद्राएँ श्रीमदाचार्य के पावन चरणों में समर्पित हैं। इसे स्वीकार कर राजपरिवार एवं पोटसल प्रजा - समुदाय के कल्याण के लिए आशीर्वाद दें।'
इति
त्रिभुवनमल्ल बिट्टिग पोय्सलदेव'
पढ़ने के बाद सुरिंगेय नागिदेवपणा ने सभी सभासदों की ओर एक बार देखा। सभी के चेहरों पर सन्तोष और तृप्ति का भाव विद्यमान था । नयकीर्ति और शुभकीर्ति के चेहरों पर किसी तरह का भाव प्रकट नहीं था। परन्तु वामशक्ति पण्डित के मुख पर असूया की भावना स्पष्ट लक्षित हो रही थी ।
सचिव ने उस दान-पत्र को फिर क्यों-का- -त्यों तहकर रेशम की डोरी से बाँधकर कहा, "इस दान-पत्र को ताम्र पत्र पर उत्कीर्ण करवाकर श्री श्री के चरणों में समर्पित किया जाएगा। तब तक यह आपके पास सुरक्षित रहे।" - दोनों हाथों में उसे लेकर आगे बढ़ाकर आचार्यजी को समर्पित किया। फिर वह जाकर अपने आसन पर बैठ गये।
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आचार्यजी उस रेशम के पुलिन्दे को हाथ में पकड़े, वैसे ही थोड़ी देर सिर झुकाकर कुछ सोचते रहे। फिर सिर उठाया। उनके चेहरे पर एक अनिर्वचनीय तेज चमक रहा थी।
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आचार्यजी ने श्रीर- गम्भीर वाणी में कहा, "पोयाल चक्रवर्ती, पट्टमहादेवी शान्तलदेवी, राजमहिषियों, राज परिवारियो, सचिव नागिदेवण्णा, सामाजिको, और सभासदो ! हमने सर्वस्व त्याग करने के संकल्प से संन्यास- स्वीकार किया परन्तु इस पोय्सल राज्य में आने के पश्चात् 'संन्यासी का संसार' लोकोक्ति के अनुसार हमारी स्थिति हमारे ही वश में न होकर यों बदल गयी है। संन्यासी को लौकिक प्रेम से परे होकर पारलौकिक विश्वप्रेम का अर्जन करना होगा। इस दिशा में हम साधना करने
142 महादेवी शान्तला भाग तीन
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