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का पूर्व संचित पुण्य ही है। आचार्यजी का हमारे यहाँ पधारना अतीव आनन्द का विषय होने पर भी, अपनी जन्मभूमि को छोड़कर, इस ढलती उम्र में किन परिस्थितियों में यहाँ आना हुआ, उस जानने पर शरीर रोमांचित हो उठता है।"
नागिदेवण्णा भावाविष्ट हो आये। आचार्य ने उनकी ओर देखा, फिर भी उनका भाषण यथावन चलता रहा-"उनके जन्म-देश के राजा राजेन्द्र चोल द्वितीय हैं. जिनसे आप सभी परिचित हैं। सुनते हैं कि वे कट्टर शैव हैं। श्री श्री आचार्य विष्णुभक्त हैं। राजाओं में धार्मिक सहिष्णुता न हो तो अनेक कष्ट उत्पन्न हो जाते हैं। ऐसे कष्ट व्यक्त रूप से न होने पर भी अव्यक्त रूप से होते ही हैं। आचार्यजी को इस ढलती उम्र में पैदल ही चोल राज्य की सीमा पार कर नीलाद्रि पर्वत श्रेणी को लाँचकर, इधर हमारे पोय्सल राज्य में आना हो तो उनके जन्म-राज्य में अर्थात् चोल-राज्य में रहने में अनिच्छा हो गयी हो तो कोई-न-कोई ऐसा सन्निधेश अवश्य ही उत्पन्न हुआ होगा. इसमें कोई आश्चर्य नहीं। यदि हमारी यह कल्पना सत्य हो तो यह निश्चित है कि उस चोल राज्य का प्राबल्य एवं प्राशस्त्य हासोन्मुख होगा ही। हमारे इस भाग्योदय की वजह से यह पोयसल राज्य इन्हीं सन्निधान के समय में और अधिक वृद्धिंगत होगा—इसमें कोई शंका नहीं। श्री श्री के तप का पुण्य फल्न हमारा है इसलिए यह बात कह रहा हूँ। जनता में धर्म की सही जानकारों का प्रसार ही उनका लक्ष्य है ! हमी उद्देश्य मे वे पोय्साल राज्य के एक स्थान में आश्रम बनाना और यहाँ रहकर आवश्यकता के अनुसार पायमल राज्य पें जहाँ चाहे जाना. जनता से सम्पर्क स्थापित कर अपनी विचारधारा को प्रवाहित करना, यही कुछ वे चाहते हैं। अपने शिष्य-बार्ग के सदस्यों की मण्डली बनाकर, एक एक को एक एक प्रदेश में भेजकर उन्हें अपने तत्वों के प्रचारकों के रूप में रखकर जनता में फैलाने का उनका विचार है। हमारा कन्नड़ प्रदेश खुले दिन से सर्वदा सबका स्वागत करता आया है। सभी तरह की विचारधाराओं का सहिष्णुता के साथ परिशीलन करनेवाली जनता इस राष्ट्र में है. इस बात को समझकर. श्री श्री आचार्यजी हमारे यहाँ पधार हैं। हमारे राज्य के विषय में उनके कानों तक जो समाचार पहुँचा है, वह सत्य है। इसमें वे प्रोत्साहित होकर यहाँ जो पहुँचे. यह हमारे भाग्योदय का शुभ लक्षण हैं। ऐसी स्थिति में पाय्सल राज्य की प्रजा उनको सहयोग दे यही सन्निधान का अभिप्रेत है। हम सबकी
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की आवश्यकता के अनुसार जब चाहे तब संस्कृत शब्द भण्डार से शब्द ले लेकर कन्नड को पुष्टि, सक्षम बनाने में कार्य में इस समय के लेखक, साहित्यिक, राजे. महाराजे यलशील रहा करते थे-इसका परिचय मिल जाता है। ऐसे अनेक दानपत्र, नाम्न.. पत्र, प्ररतर-लेख मिलेंगे, जिनमें विकासशील कन्नड़ ने संस्कृत से अपने को सम्पन करने में कभी संकोच नहीं किया।
110 :: पहमहादेवो शान्जला : भाग तीन