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पीछे दो फलकपाणि सशस्त्र होकर आये। उनके पीछे एक परात में पुष्पमालाएं लेकर इण्डेय भाइदेव आया। इन सबको साथ लेकर अंगरक्षक अंकणा वेदी पर चढ़ा और झुककर प्रणाम किया। ___परातवाले समवस्त्रधारी सैनिकों ने उन परातों पर से आवरण हटाकर परात आचार्य के चरणों के पास रख दिया। सभी पीछे-हो-पीछे सरक आये। परातों में आँखों को चौधियानेवाली राज-खजाने के सोने की मुहरें भरी थीं।
भाइदेव ने पुष्प-माला के परात को बिट्टिदेव के आगे बढ़ाया। बिट्टिदेव ने माला ली और आचार्यजी को पहनायी। तब तक भाइदेव वेदी पर से उतर चुका था।
आचार्यजी को माला पहनाने के बाद बिट्टिदेव ने हाथ्य जोड़कर आचार्यश्री से निवेदन किया, "यह पोयसल घराने की एक अकिंचन भेंट है। आचार्यश्री इसे स्वीकार कर अनुग्रह करें।" तदनन्तर यह अपने आसन पर बैठ गये। शान्तलदेवी भी बैठ गयीं। शेष सब लोग भी बैठ गये।
आचार्यजी ने कहा, "पोयसल चक्रवर्ती! आपका यह राजघराना दान और आश्रित-रक्षा के लिए अत्यन्त प्रसिद्ध है। उदारता में कोई आपका सानी नहीं। परन्तु हम संन्यासी हैं। इस धन से हमारा कोई प्रयोजन नहीं दीखता। रहने के लिए हमें स्थान मात्र चाहिए। मो भी कोलाहल से दर एकान्त में! हमारे तास-पमार के लिए और अनुष्ठान आदि कार्यों के लिए सम्भवतः कुछ धन की जरूरत हो सकती है। परन्तु वह भी बहुत थोड़ा। और वह गौण विषय है। आवश्यक होने पर कोई न कोई भक्त दे ही देंगे। इसलिए इस धन को स्वीकार करना हमसे नहीं हो सकेगा। मान लो कि हमने स्वीकार कर भी लिया तो इसकी रक्षा कैसे कर सकेंगे। हमारे पास ऐसी कोई व्यवस्था या कोई संचालन-यन्त्र आदि तो है नहीं। हमारे पास है क्या? हम तो सबका त्याग कर चुके हैं। यह सब हमें नहीं चाहिए।"
"जो दिया है सो वापस लेना कैसे सम्भव हो सकता है ? यह उचित होगा? अश्रेयस्कर नहीं होगा? आप ही कहिएगा।' बिट्टिदेव ने आचार्यश्री से निवेदन
किया।
"हमसे पहले एक बार पूछ लेते तो अच्छा होता।" आचार्य ने कहा। बिट्टिदेव की बातों का उत्तर आचार्यजी तुरन्त न दे सके।
"इसकी सुरक्षा की व्यवस्था हमारे मन्त्री नागिदेवण्णाजी देख लेंगे। वह आपका, आपके नाम से राजकोष में रहेगा। जब जितना चाहिए वहाँ से प्राप्त कर सकते हैं।" इतना कह बिष्टिदेव ने इस बात को वहीं समाप्त कर दिया और मन्त्री नागिदेवण्णा से बोले, "नागिदेवजी, सदा हमारे हितचिन्तन करनेवाले इन आह्लानितों
138:: पदमहादेवी शान्तला : भाग तीन