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को श्री श्री आचार्यजी का परिचय करवाकर, यहाँ आने के मूलभूत उद्देश्य एवं उनकी अद्भुत तप:शक्ति का विवरण समझाकर, इसी सिलसिले में राजशासन (समाना) को भी पढ़कर सुनधा दीजिए।"
सचिव सुरिगेय नागिदेवणा उठ खड़े हुए। लम्ब हष्ट-पुष्ट, गम्भोर मुखमुद्रा, कानों में कुण्डल, गले में रत्न के जड़ाऊ हार, उँगलियों में चमकती अंगठियाँ, अपने पद-प्रतिष्ठा के अनुरूप रेशम की बड़ी लाल किनारीवाली धोती, सोने के तार के कामवाला अंगरखा, जरी का उपरना और उसी से फबती हुई जरीदार पगड़ी। हृष्ट-पुष्ट मांसल, लम्बाई के अनुरूप उनकी देहयष्टि। आकर्षक व्यक्तित्व। उन्होंने हाथ जोड़कर पहले आचार्य को प्रणाम किया, फिर उपस्थित सभा के माननीय सज्जनों की ओर देखकर बोले
"पोय्सल साम्राज्य के दण्डनायको, विद्वानो, शास्त्रज्ञो, पण्डितो, धर्मदर्शियो, सेनापतियो, सामाजिको और सभासदो! सन्निधान की आज्ञा के अनुसार श्री श्री आचार्यजी के विषय में अपना जितना भी परिचय है, उसे आपके समक्ष निवेदन कर रहा हूँ। मैं श्री आचार्यजी के विषय में जितना विषय-संग्रह कर सका हूँ, उसे सत्य मानकर उन्हीं के समक्ष अब निवेदन कर रहा हूँ। यदि मेरे कहने में भूल-चूक हो तो श्री श्री जी या उनके शिष्य उसे ठीक कर लेंगे।" इतना कह आचार्यजी के विषय में संक्षेप में बताकर, उनकी विद्वत्ता, धर्माधर्म सम्बन्धी उनके सम्यक् ज्ञान, अन्ध-विश्वासों के कारण शिथिल होते हुए वैदिक धर्म के पुनरुत्थान के लिए उन्होंने जो नयी योजना बनायी थी, उस सबके बारे में बताया। सबने दत्तचित्त होकर सुना। एम्बार आँखें बन्द कर हाथ जोड़कर, अपने आचार्य के इस गुणगान को सुन, आत्मविस्मृत-से सुखानुभव कर रहे थे।
आचार्यजी निर्विकार निर्लिप्त भावना से एक तरफ सिर झुकाये चुपचाप बैठे थे। सचिव नागिदेवण्णा ने अपना निवेदन आगे बढ़ाया-"ऐसे महानुभाव ने पोय्सल राज्य में आकर यहीं बसने का निर्णय किया है, यह इस राष्ट्र के भाग्योदय का प्रस्तरविन्यास है। अपने जीवन के तीन-चौथाई से ज्यादा समय अपने जन्म-देश में व्यतीत कर इसी ढलती उम्र में और सिद्धि प्राप्त होने के अवसर पर, अपनी सम्पूर्ण तप:शक्ति का विनियोग करने के लिए इस प्रदेश में आये हैं, तो यह इस राष्ट्र
1. यह अनुवाद भाषा की दृष्टि से यत्र-तत्र हिन्दी का पुट लिये मूल दत्त-दान पत्र की भाषा
में हो यो का-त्यों प्रस्तुत किया गया है। इसका उद्देश्य उस दान-पत्र को उन दिनों राजे-महाराजे किस तरह की भाषा में और किस शैली में लिखवाया करते थे. इसकी जानकारी देने के साथ-साथ भाषा संस्कृतनिष्ठ होकर किस तरह विचाराभिव्यक्ति के लिए उपयुक्त माध्यम के रूप में विकसित हुई थी-यह दर्शाना भी है। भावाभिव्यक्ति
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 139