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'हरि! इस अम्बा की रक्षा करना तुम्हारे ही हाथ है। उनके अंग अंग में व्याप गया था।
आचार्य ने आँखें खोली। अपनी अण्टो में से एक छोटी डिबिया निकाली। उससे कुछ चूर्ण निकाला। राजकुमारी का मुंह खुलवाकर उस चूर्ण को मुंह में डाला, फिर कहा, "हरि ! इस अम्बा की रक्षा करता तुम्हारे हाथ है।'' और फिर वे अपने आसन पर आकर बैठ गये।
'महाराज ! इस अवसर पर हमें एक निवेदन करना है। अभी हमने राजकुमारी को जो चूर्ण दिया है वह हमें हमारे गुरुवर्य से प्राप्त हुआ है। वे कहते थे कि यह सर्वरोग निवारक ओषधि है। हम वैद्य नहीं। न ही हममें रोग को पहचानने की शक्ति ही है। परन्तु, हमें अपने गुरुवर्य की बात में अटल विश्वास है। उनके कहे अनुसार चलने पर सिद्धि निश्चित होती है। सब हरि की इच्छा है-इसी विश्वास के साथ सेवा करेंगे तो फल प्राप्ति होगी ही। इसलिए कोई यह न समझे कि यह कोई करामात है। इसे विश्वास का फल ही मानें। स्वयं धन्वन्तरि ने हो स्पष्ट कहा है-'औषधे भगवान् विष्णुः सस्मृतो रोगनुभक्त । ध्यातोत्रितः स्तुतो वापि नात्र कार्या विचारणा।' तब राजकुमारो के विषय में आप निश्चिन्त रह सकते हैं। क्योकि आषधि, वैद्य--- सब निमित्त मात्र हैं। किन्तु इन सबके पीछे पूर्व निश्चित हरि की इच्छा है। कल हमें ऐसा सुख सन्निवेश देखने का सुअवसर मिले कि राजकुमारी को खेलतीकूदती देख सकें-श्रीमन्नारायण यहो अनुग्रह करें। अब हम चलते हैं, अनुमति हो। आज की हरि सेवा समर्पित हुई, हमें सन्तोष हुआ। अब आप लोग विश्रान्ति लें।" कहकर आचार्य उठ खड़े हुए।
"आपको जिन बातों की सुविधा चाहिए सो सब हमारे सचित्र कर देंगे। जो भी आवश्यक हो आप निस्संकोच प्राप्त कर सकेंगे।" बिट्टिदेव ने कहा। उनके कथन में एक तरह की तृप्ति और कृतज्ञता के भाव थे।
"जब तक पोय्सल राज्य में हम हैं, हमारे कहने से पहले ही हमारी आकांक्षाएँ पूर्ण हो जाती हैं। इसलिए हमें उसके विषय में कुछ भी चिन्ता नहीं। आइए नागिदेवण्णाजी, अब अधिक समय इन राजदम्पती को कष्ट न दें।" कहकर आचार्य ने आगे कदम बढ़ाया। सुरिंगेय नागिदेवण्णा ने उनका अनुसरण किया।
अन्तःपुर के फाटक तक आकर राजदम्पती ने उन्हें विदा किया। फिर विश्रामागार में आकर पलंग पर बैठ गये।
"चेनब्बे ! दासब्बे से कह अाओ कि सन्निधान के लिए दूध ले आवें। आते वक्त जक्की को देख आना कि वह चुपचाप लेटी है या कुछ गड़बड़ कर रही है" शान्तलदेवी ने कहा। चेन्नन्चे वहाँ से चली गयी।
उसके जाने के बाद बिट्टिदेव ने पूछा, "देवी, उस घण्टी बजानेवाली को
पटुमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 129
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